Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 470
________________ ४५५ समयसुन्दर का विचार-पक्ष समय में आचार एवं विचार सम्बन्धी मतभेदों को लेकर जैन धर्म में अनेक गच्छ थे। उनमें पारस्परिक सौहार्द्र भी नहीं था। यह बात समयसुन्दर द्वारा किये गये उल्लेखों से भी स्पष्ट समयसुन्दर की मान्यता थी कि हमें आग्रहवादी नहीं बनना चाहिये। दूसरे के सत्य को अस्वीकार नहीं करना चाहिये एवं वैचारिक संघर्ष की भूमिका तैयार नहीं करनी चाहिये। वे कहते हैं कि जिनधर्म (जैनधर्म) जिनधर्म सभी चिल्लाते हैं, लेकिन सभी अपने-अपने मतों की ही स्थापना करते हैं, न कि जिनधर्म के सिद्धान्तों की। सभी जिनधर्म के अनुयायी हैं, लेकिन सबकी समाचारी, सबका आचरण अलग-अलग है। समयसुन्दर का कहना है कि लोग इतने आग्रहवादी हैं कि दूसरे के सत्य को मान्य ही नहीं करते। ऐसे लोगों का कहना है कि हम ही केवल सच्चे हैं, दूसरे झूठे हैं। स्वमत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करना समयसुन्दर के अनुसार अनुचित है। वे कहते हैं कि हम ही सच्चे, दूसरे झूठे हैं-यह कहना छोड़ दो। सत्य तो वही है, जो वीतरागदेव-कथित समयसुन्दर एक अन्य रचना में कहते हैं कि इस समय चौरासी गच्छ मुख्य रूप से देखे जाते हैं, लेकिन उन सबके भिन्न-भिन्न आचार हैं। सभी गच्छानुयायी अपने-अपने गच्छ को एक-दूसरे से श्रेष्ठ बता रहे हैं। अब ऐसी स्थिति में व्यक्ति सोचता है कि हमें कि गच्छ की विधि करनी चाहिये। समयसुन्दर कहते हैं कि इस समय परम ज्ञानी कोई विद्यमान नहीं है, जिससे शंका का निवारण किया जा सके। अतः प्रत्याक्षेप कभी नहीं करना चाहिये। किसी भी गच्छ के प्रति अप्रीति नहीं रखनी चाहिये। समयसुन्दर बताते हैं कि जिनशासन में गच्छों के कारण बहुत संघर्ष हुए हैं और पता नहीं अभी तक कितने संघर्ष होंगे। वे कहते हैं कि सभी लोग अपने-अपने गच्छों के प्रति इतना महत्व रखते हैं और उसे ही पकड़ कर बैठ गये हैं३ यह कौन जानता है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? सूत्र सिद्धान्त सबके वही है। समयसुन्दर कहते हैं कि तुम पुरुषार्थ को समझो। अपने हृदय में मन्थन करके सोचो कि तुमने गच्छवाद में पड़कर कितना राग-द्वेष किया है। तपागच्छवाले कहते हैं 'इरियावही' सामायिक-पाठ उच्चारण करने से पहले होती है, जबकि खरतरगच्छवाले कहते हैं, 'इरियावही' सामायिक-पाठ ग्रहण करने के बाद होती है। अचलगच्छवाले मुँहपति (मुखवस्त्रिका) के बारे में अन्य दृष्टिकोण रखते १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, वीतराग-सत्य वचन गीतम्, पृष्ठ ४४७ २. वही, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी (६),पृष्ठ ५१६ ३. वही, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी (७),पृष्ठ ५१६ ४. वही, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी (११),पृष्ठ ५१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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