Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहु मिल मुझ ज करतारा, तउ पूछें दोइ बतियां रे । तूं कृपाल कि तूं हइ पापी, लख न सकूं तोरी गतियाँ रे ।
- करतार गीतम् (१)
आरसा मांहि मुहड़उ दीसइ, कहउ ते पुद्गल केहा रे । जीव अरूपी करम सरूपी, किम सम्बन्ध संदेहा रे ॥
ऐ ऐ विद्याधरी ए कोई, के अपछर अवतार । के किन्नर के पाताल सुंदरी, सुन्दर रूप अपार ॥
२.१६ अतिशयोक्ति - अलङ्कार
जिसमें किसी की निन्दा, प्रशंसा आदि करते समय किसी साधारण बात को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाता है, वह अतिशयोक्ति - अलङ्कार होता है । समयसुन्दर ने अपनी स्तुतिपरक रचनाओं में अतिशयोक्ति- अलङ्कार की लड़ियाँ बिछा दी हैं, लेकिन उन्हें विशुद्ध रूप में अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि कवि ने जिन आदर्श पुरुषों की स्तुति की है, वे उनके लिए अत्यन्त श्रद्धास्पद हैं और श्रद्धेय के वर्णन में अतिशयोक्ति का आ जाना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त भी कवि ने इस अलङ्कार का प्रयोग किया है
- सन्देह गीतम् (२)
- सीताराम - चौपाई (४.९)
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सर्वंसहा प्रश्रुतित्त्वात्मर्द्यानं पदैरधः । न कुप्यसि कदापि त्वं रजस्ते क्षांतिरुत्तमा ।
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- रजोष्टकम् (४) उपर्युक्त पद्य में अचेतन रज के साथ चेतन का धर्म क्षमा का ( और क्रोध का ) संबंध बताया गया है। अतः अतिशयोक्ति - अलङ्कार है। पुनश्च
एक हाथी तणइ आठ दंतसूला, दंत- दंत आठ आठ वावि सोहइ । वावि-वावि आठ-आठ कमल तिहाँ, आठ-आठ पांखडी पेखतां मन्त्र मोहइ ॥ पत्र पत्रइ बत्तीस बद्ध नाटक पड़इ, कमल विचि इन्द्र बइठउ आणन्दइ । आठ वलि आगलिं अग्र महिषी खड़ी, वीर नई एण विधि इन्द्र वांद ॥ श्री दशार्णभद्र गीतम् (५-६)
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२.१७ विषमालङ्कार
जहाँ या तो दो परस्पर विरोधी बातों या वस्तुओं के संयोग का उल्लेख होता है, या उस संयोग की विषमता दिखाई जाती है, वहाँ विषम- अलङ्कार होता है। उदाहरणतः - मेरे मनि तूं ही तेरे मनि कछु नहीं, तउ कीजइ कहा प्रीति जोरइ ।
- श्री नेमिनाथ गीत (२)
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