Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
३७७ मुख पूनम नो जाणे चंदलो, मृग लोयण अणियाल रे। नासिका दीपसिख जिम दीपती, कोकिल कंठ रसाल रे ।।
-चार प्रत्येक-बुद्ध चौपाई (३.२.७) अथिर मान राजा तणो जाणे गंग तरंग।
-चार प्रत्येक-बुद्ध चौपाई (४.६.११) रावण लखमण चक्र प्रहारई, ततखिण ढलि पड्यो धरती तिवारईं। जाणे प्रबल पवन करि भागो, रावण ताल ज्युं दीसिवा लागो॥ जाणे केतू ग्रह ऊपरती, किंवा त्रुटि पड्यो ए धरती। रावण सोहइ पडियो धरती, जाणे आथमतउ सउ दिनपती॥
- सीताराम-चौपाई (७.२.५२-५५) तिण देस कोसंबी पुरी, जाणे इन्द्र पुरी अवतरी। जमुना नदी बहई जसु पास, जाणि जलधि मूंकी (क) हई तास॥ प्रासाद शृंग ऊपरि पूतली, कमल नेत्र नई कटि पातली। जाणि नगर रिधि जोवा भणी, अमर सुंदरी आवी घणी॥
- मृगावती-चरित्र-चौपाई (१.१.४-६) २.८ रूपकालङ्कार
रूपक-अलंकार में बहुत अधिक साम्य के आधार पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आरोप करके अर्थात् उपमेय में उपमान के साधर्म्य का आरोप करके और दोनों में भेद का अभाव दिखाते हुए उपमेय का उपमान के रूप में ही वर्णन किया जाता है। कवि समयसुन्दर ने अपने साहित्य में रूपक-अलंकार को प्रचुर स्थान दिया है। कवि ने जिस रीति से रूपक को गृहीत किया है, वह उनके विवक्षितार्थ को सुन्दर ढंग से प्रकाशित करता है। उदाहरण के लिए उनके रूपक-अलंकार से युक्त कुछ पद्य यहाँ अवतरित किये जाते हैं -
प्राचीदिक्प्रमदा चक्रे विशाले भालपट्टके। बालारुणरवेबिंम्बं, चारुसिन्दूरचन्द्रकम् ॥
-उद्गच्छत्सूर्यबिम्बाष्टकम् (३) इस पद्य में प्राची दिशा का प्रमदा के साथ और प्रात:कालीन सूर्यबिम्ब का सिन्दूर के तिलक के साथ रूपक है। पुनर्यथा -
चतुर्यामेषु शीतार्ता यामिनी कामिनी किमु । तापाय तदनोद्गच्छद्विम्बमङ्गेष्टिका व्यधात् ॥ प्रतीच्याभिमुखं क्रीडोच्छालनाय नवाऽरुणः। प्राचीकन्याकरस्थः किं रक्तद्युदरत्न कंदुकः॥
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