Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
३६१ रामनई एम विमासतां आगि बधी सुप्रकास रे। झालोझाल मिली गई, धूम छायो आकास रे । धग-धग सबद बीहामणो, अगनिनो ऊछल्यो ताम रे॥ एक गाऊ नो चांद्रणो, चिहुँदिसि थयो ठाम-ठाम रे ।। बाय डंडुल वायोवली, जे बाली करइं खंभ रे।
कायर ना काप्या हिया, सुरनर पाम्या अचंभ रे॥१ १.७ वीभत्स-रस
वीभत्सरस का स्थायीभाव'जुगुत्त्सा' है। किसी वस्तु के दर्शन, स्मरण या स्पर्श करने से चित्त में जो घृणा उत्पन्न होती है, उसे जुगुप्सा कहते हैं। इसी जुगुप्सा या घृणा की पूर्णपुष्टता को वीभत्स-रस कहते हैं। वीभत्स के दो भेद स्वीकृत किये गये हैं - १. रक्त आदि से उत्पन्न होने वाला शुद्ध या क्षोभण और २. विष्ठा, कृमि आदि से उत्पन्न होने वाला अशुद्ध या उद्वेगी। विवेच्य रचनाओं में वीभत्स के दोनों भेदों का रसोद्दीपक वर्णन उपलब्ध है।
खन्दक मुनि के ५०० शिष्यों को पालक मन्त्री ने जीवित ही कोल्हू में तिल की तरह पिसवा दिया। कवि के इस वर्णन में वीभत्स की पूर्ण व्यञ्जना हुई है। इसी तरह साधनामग्न सुकोशल मुनि के शरीर को जब एक व्याघ्र नोंच-नोंच कर खाने लगा, तो इसे देखकर सहज ही जुगुप्सा का भाव उत्पन्न होता है।
रुक्मिणी ने ऋषिदत्ता के पास एक योगिनी को भेजा। उसने एक व्यक्ति की हत्याकर उसका मांस ऋषिदत्ता के निकट रख दिया और रुधिर से उसका मुँह लिप्त कर दिया। राजा कनकरथ ने इस घृणित दृश्य को देखा, तो उसका मन घृणा से भर गया।
इन्द्रध्वजा मलमूत्र में पड़ी सड़ रही थी। उसे देखकर द्विमुख राजा प्रतिबुद्ध बन गया। यहाँ भी वीभत्स का स्पष्ट रसाभास होता है।
वि० सं० १६८७ में दुर्भिक्ष के कारण अनगिनत मनुष्य काल के ग्रास बने। उनके शव सड़कों और गलियों में पड़े सड़ रहे थे। उनसे भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी, पर उन्हें उठाने वाला कोई नहीं था। कवि का इस सम्पूर्ण दृश्य का चित्रण वीभत्स रसोत्पादक
१. वही, (९.२.२३-२५) २. नाट्यशास्त्र (६८२) ३. द्रष्टव्य - समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री खंदकशिष्य गीतम् (१-३) ४. द्रष्टव्य - वही, श्री सुकोशलसाधु गीतम् (४) ५. द्रष्टव्य – वही, श्री ऋषिदत्ता गीतम् (३-५) ६. द्रष्टव्य - चार प्रत्येकबुद्ध-चौपाई (२.७)
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