Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
View full book text
________________
समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
३६७ साध कहइ ध्रम सांभलउ, ए संसार असार । जनम मरण वेदन जरा, दुखु तणउ भंडार ॥ काचउ भांडउ नीरकरि, जिण वेगउ गलि जाय। काया रोग समाकुली, खिण मइ खेरु थाय॥ बीजलि नउ झबकउ जिस्यउ, जिस्यउ नदी नउ वेग। जोवन वय जाणउ तिस्यउ, ऊलट वहइ उदेग॥ काम भोग संयोग सुख, फल किंपाक समान। जीवित जल नउ बिंदुयउ, सम्पद सन्ध्यावान ।। मरण पगां मांहि नित वहइ, साचउ जिनध्रमसार।
संयम मारग आदरउ, जिम पामउ भव पार ॥१
अज्ञानवश शम्बूक की हत्या कर देने पर लक्ष्मण इस दुष्कृत्य के लिए अपने पौरुष को धिक्कारता है। कामासक्त रावण द्वारा सीता को पुनः-पुनः भोग के लिए निमन्त्रण देने पर वह मरणासन्न-सी हो जाती है। अन्ततः रावण के चित्त में भारी दुःख होता है और वह पश्चाताप करते हुए कहता है कि ओह ! मैं कैसा अधम हूँ, मैंने विभीषण जैसे भाई को तिरस्कृत कर निकाल दिया, सीता जैसी सती को महान् कष्ट दिया, रामलक्ष्मण जैसे सत्पुरुषों से युद्ध किया-इस तरह मैंने अपने कुल को कलंकित किया है। लक्ष्मण पर चलाये चक्र के निरर्थक जाने पर रावण निराश हो जाता है और संसार की सारशून्यता को व्यक्त करता है -
धिग मुझ विद्या तेज प्रतापा, रावण इणपरि करइं पछतापा। हा हा ए संसार असारा, बहुविध दुख तणा भण्डारा। हा हा राज रमणी पणि चंचल, जौवन उलट्यो जाय नदी जल। सोहइ रोग समाकुल देहा, कारमा कुटुम्ब संबंध सनेहा। हा हा धिग-धिग मुज्झ जमारो, मई तो निफल गमाड्यो सारो।
अग्नि-परीक्षा के बाद राम सीता से अपनी सोलह हजार रानियों में पट्टरानी होने की प्रार्थना करते हैं, लेकिन सीता संसार को निस्सार एवं स्वार्थमय जानकर विरक्त हो जाती है। मृत लक्ष्मण की देह को लिए राम गली-गली में भटकते हैं और उसे पुनः • जीवित करने का अनेक प्रयास करते हैं, तब इन्द्र उन्हें समझाने के लिए अनेक घटनाएँ १. वही (२.२ से पूर्व, दोहा ४-८) २. द्रष्टव्य – सीताराम-चौपाई (५.३ से पूर्व, दोहा ५-७) ३. द्रष्टव्य - वही (७.१.१७-१९) ४. द्रष्टव्य – वही (७.२.३१, ३३-३४, ३९) ५. द्रष्टव्य - वही (९.३ से पूर्व, दूहा १-१३)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org