Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वि० सं० १६५२, विजया दशमी, गुरुवार को स्तम्भतीर्थ नगर में यह रचना पूर्ण
की गई है। रचना में १५ चतुष्पद हैं। ६.५.२.९ श्री जिनचन्द्रसूरि-स्वप्न -गीतम्
इसमें एक सखी स्वप्न में हुए जिनचन्द्रसूरि के दर्शन का वर्णन दूसरी सखी से करती हुई कहती है
सुपन लह्यं साहेलड़ी रे, निसि भरि सूती रे आज । सुन्दर रूप सुहामणा रे, दीठा श्री गच्छराज ॥ संख सबद सखि मदं सुण्यउ रे, ऊभी जोऊँ रे वाट । आंगणि मोरी आविया रे, परिवऱ्या मुनिवर थाट ॥ धवल मंगल गायइ गोरड़ी रे, हीड़इ हरख न माय । नारि करइ गुरु न्युंछणा रे, पड़िलाभइ मुनिराय ॥ प्रस्तुत गीत ६ कड़ियों में है। इसका रचना - काल अनुल्लेखित है । ६.५.२.१० श्री जिनचन्द्रसूरि छन्द
प्रस्तुत रचना का काल अनिर्दिष्ट है । यह रचना ७ गाथाओं में लिखी गई है। इसमें जिनचन्द्रसूरि द्वारा कृत विशिष्ट शासन सेवा का यथार्थ निरूपण है। एक बार सम्राट् अकबर ने किसी मुनि को दुराचार करते हुए देख लिया । अतः अकबर ने अपने राज्य में मुनियों का आगमन निषिद्ध कर दिया। जिनचन्द्रसूरि ने अकबर को प्रतिबोध देकर उसके राज्य में मुनियों का विहार पुनः प्रारम्भ करवा दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने 'युगप्रधान ' विरुद को सार्थक किया।
६.५.२.११ श्री जिनचन्द्रसूरि आलिजा गीतम्
प्रस्तुत रचना ११ पदों में है । यद्यपि इसके रचना - काल की सूचना कवि ने नहीं दी है, किन्तु रचना में प्राप्त सन्दर्भों के आधार पर अवगत होता है कि यह रचना जिनचन्द्रसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् ही लिखी गई । इस गीत में कवि ने जिनचन्द्रसूरि को दर्शन देने की विनती की है। उनके मंगल दर्शन करने की तीव्र उत्कण्ठा कवि को तो है ही, साथ ही साथ श्रीसंघ को भी है । कवि ने अपनी दर्शनोत्कण्ठा को शान्त करने के लिए उन्हें स्वप्न में दर्शन प्रदान करने का निवेदन किया है
'सुपनि में आवि वंदावजो, हूँ जाणिस परतक्ष ' ।
६.५.२.११ श्री जिनचन्द्रसूरि आलिजा गीतम्
प्रस्तुत रचना अपूर्ण रूप में उपलब्ध हुई है, जिसमें १० पद प्राप्त हैं। इसमें कवि ने जिनचन्द्रसूरि के कतिपय महत्त्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख करते हुए, उनके विरह में विकलता और दर्शन की उत्सुकता व्यक्त की है ।
कवि के शब्द बड़े मर्मस्पर्शी हैं.
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