Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भेदों का कथन करना अशक्य है। वास्तव में विश्व में जितने साहित्यकार होंगे, उतनी ही शैलियाँ होंगी। परिस्थिति, पात्र, व्यक्तित्व, और लक्ष्य के अनुसार उसकी शैली भी बदलती रहेगी। फिर भी, शैलियों का वर्गीकरण होता रहा है।
महोपाध्याय समयसुन्दर अपने युग के महान् साहित्यकार थे। इस एक ही व्यक्तित्व ने अपनी साहित्यिक कृतियों में अनेक शैलियाँ अपनाईं। उनकी भाषा-शैली को किसी विशेष शैली में समाहित नहीं किया जा सकता। उनका साहित्य बहु आयामी है । अतः स्वाभाविक है कि उनकी शैलियाँ भी विविध हों। वे सदैव परिस्थिति, पात्र, लक्ष्य आदि के अनुकूल शैली अपनाते हैं और उसमें यथानुकूल एवं यथानुरूप परिवर्तन कर लेते हैं । कविवर्य समयसुन्दर की भाषा-शैली रमणीय, आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक है। अधिकांशतया उनकी रचनाओं की शैली सरल है। यद्यपि कुछेक रचनाओं में शैली की दुरूहता भी दृष्टिगोचर होती है, लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे रचनाएँ अच्छी नहीं हैं । उनमें भी आकर्षण है। वस्तुतः सरलता तथा दुरूहता, शैली के उत्कर्ष - अपकर्ष को आंकने हेतु उपयोगी प्रतिमान नहीं बन सकते हैं। कोई रचना सरल होकर भी नीरस एवं प्रभाव-रहित हो सकती है, तो दूसरी जटिल एवं मसृण भाषा में होकर भी प्रभूत आकर्षक हो सकती है । अतः कृतिकार की भाषा-शैली कितनी सरल है और कितनी दुरूह है, यह बात अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है । महत्त्व तो इस बात का होता है कि प्रयुक्त शैली मनोगत भावों को संप्रेषित करने में कितनी सफल हुई है? इस दृष्टि से पं० समयसुन्दर की भाषा-शैली को सफल कह सकते हैं। सामान्यतया उनकी शैली सरल एवं शीघ्रबोधगम्य है । जो रचनाएँ दुरूह हैं, वे श्लेषप्रधान, अर्थ- गौरव से संवलित, उत्प्रेक्षायुक्त और अक्षराडम्बर से मण्डित हैं। उनकी कुछेक रचनाओं में दुरूहता का जो समावेश हुआ है, उसका मुख्य कारण है, पाण्डित्य - प्रदर्शन । सम्भवत: उन्होंने यह भी चाहा होगा कि दुरूह ज्ञान की मशाल बुझे नहीं और आने वाली पीढ़ियों तक भी उसे पहुँचाया जाये । अस्तु । महाकवि समयसुन्दर के समग्र साहित्य में मुख्यतः तीन शैलियों के दर्शन होते हैं२.१ गद्य शैली
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२.२ पद्य शैली
२.३ गद्य-पद्य मिश्रित शैली
१. इति मार्गद्वय भिन्नं तत्स्वरूपनिरूपणात्।
तद्भेदास्तु न शक्यन्ते वक्तुं प्रतिकविस्थिताः ॥ - काव्यादर्श, (१.१०१ )
२.
expression of thought must vary with varieties of mind, and therefore.... every writer must have his own manner of expression, - Graham, English style (London), P. 156.
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