Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की भाषा
२९३
सम्यग्दृशान्तत्पाठो न संगच्छते इति वाच्यं, सम्यग्दृष्टिपरिग्रहेण तेषामपि तुष्टत्वप्रदर्शनेन स्वसमय व्यवस्थापनया समीचीनत्वाभिधानात्, यदुक्तं 'परसमओ उभयं वा सम्मद्दिस्सि ससमओ चेव यत एवं विधा एवं जिनागमसाधनसमर्थाः तत्तस्मात् तेषां साधूनां कारणे इति निमित्तं सर्वम् एव सकलमेव स्वपरशास्त्रवृन्दम्, इह प्रवचने, भवति युज्यते, लेखनीयं पुस्तकेषुनिवेश्यम् इत्यर्थोगाथायाः ॥ एवं श्री हरिभद्रसूरिकृतावश्यकबृहद्वृत्तौ अपि श्रुतज्ञानाधिकारे प्रोक्तं तथा सम्यक् श्रुतम् अङ्गनङ्गप्रविष्टम् आचारावश्यकादि, तथा मिथ्या श्रुतं पुराणरामायण भारतादि सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रविशेषात् सम्यक् श्रुतम् इतरयं तेण परं भिन्नभयणाहिं सव्वन्नूहि सव्वदरिसीहिं पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं आयारो जाव दिट्ठिवाओ इच्चेइयाई दुवालसंगाणि गणिपिडगं चउद्दस्सपुव्विस्सं सम्मसुयं अभिन्नदसपुव्विस्स सम्मसुयं ति' मिथ्याश्रुतं भारतादिसम्यग्दृष्टिगृहीतं सम्यक् श्रुतम् भवति इति । १
समयसुन्दर की उक्त तार्किक शैली में एक ही तर्क के प्रतिपादन के लिए एकाधिक प्रमाणों का उल्लेख किया गया है। उपर्युक्त पंक्तियों में उन्होंने यह सिद्ध किया है कि मिथ्यादृष्टि से विरचित ग्रन्थों का भी अध्ययन यदि सम्यग्दृष्टि से किया जाए, तो उससे अध्येता को कोई नुकसान नहीं होता है । २.५ अनेकार्थी शैली
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शब्द, रूप, पदबन्ध और वाक्य कभी तो एकार्थी होते हैं और कभी अनेकार्थी । महापण्डित समयसुन्दर की रचनाएँ एकार्थी तो सभी हैं, लेकिन कुछेक ऐसी भी हैं, जो एकाधिकार्थी हैं । उनकी श्लेष एवं यमक प्रधान रचनाएँ अनेकार्थी शैली में ही निबद्ध हैं। ऐसी रचनाओं के प्रणयन का उद्देश्य ही शब्द, रूप, वाक्य आदि की बहुअर्थता को उद्घाटित करना है । यद्यपि सामान्य भाषा के लिए अनेकार्थता अवगुण है, परन्तु काव्य भाषा के लिए वही गुण है । भाषा सम्बन्धी चमत्कार तो अनेकार्थता से ही होता है । समयसुन्दर भाषा की सार्थक इकाइयों के अनेक अर्थ प्रस्तुत करने में महाकुशल थे। अष्टलक्षी ग्रन्थ इस बात का सबल प्रमाण है । इस ग्रन्थ के ग्रन्थकार ने 'राजा नो ददते सौख्यम्' - इस अष्टाक्षरीय वाक्य के अष्टलक्षाधिक अर्थ किये है, जो कि अनेकार्थी शैली में विरचित ग्रन्थों में अद्वितीय एवं आश्चर्यजनक है। उन्होंने यह अनेकार्थता अनेक माध्यमों से की है। जैसे शब्दों की भिन्नस्रोतता, भिन्नघटकता, भिन्नार्थी प्रत्यय, अभंग एवं सभंग पदश्लेष आदि। यह अनेकार्थता शब्दस्तरीय भी है और वाक्यस्तरीय भी । प्रतीक, अन्योक्ति और समासोक्ति के माध्यम से भी एकाधिक अर्थ हुए हैं। यहाँ हम विस्तार भय से विविध उदाहरण न देते हुए केवल एक ही उदाहरण देते हैं, 'राजा नो ददते सौख्यम्' । इस पंक्ति के ग्रन्थकार ने जो आठ लाख अर्थ किए हैं, वे सभी अर्थ देने तो यहाँ असम्भव हैं, फिर भी कतिपय अर्थ द्रष्टव्य हैं -
१. विशेषशतकम् (१८)
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