Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की भाषा
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यों तो उनकी समस्त रचनाओं में यह शैली अवतरित हुई है, लेकिन कतिपय रचनाएँ ऐसी हैं, जिनमें इस शैली की प्रधानता है अथवा वे इसी शैली में विरचित हैं ।
'थावच्चासुत रिषि चौपाई' को हम संवाद - शैली के अन्तर्गत रखेंगे, क्योंकि उसमें इसी की प्रमुखता है। इसमें माता थावच्चा अपने पुत्र थावच्चासुत को दीक्षा ग्रहण न करने के लिए विविध प्रकार से समझाती है, संयममार्ग की कठोरता का विस्तृत वर्णन करती है और पुत्र संसार की असारता को सविस्तार प्रस्तुत करता है । इसी सम्बन्ध में थावच्चासुत का कृष्ण के साथ भी संवाद होता है। इसी तरह इस रचना में शुक्र परिव्राजक का थावच्चासुत ऋषि के साथ आहार चर्या, क्रिया इत्यादि के संबंध में वार्त्तालाप हुआ । ये संवाद विस्तृत होने के साथ-साथ आकर्षक भी हैं। इस शैली से ही कृति में प्राण आया है। 'दान - शील- तप-भाव-संवाद शतक' नामक रचना संवाद शैली में ही निबद्ध है । यह रचना आरम्भ से अन्त तक इसी शैली में व्याख्यायित है । दान, शील, तप और भाव - चारों स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए आत्म-प्रशंसा करते हैं, परनिन्दा करते हैं। चारों के संवाद विस्तारपूर्वक हैं ।
इसी तरह तरह 'केशी - प्रदेशी - प्रबन्ध' भी इसी शैली में आबद्ध है। ये संवाद प्रश्नोत्तररूप में हैं, जो श्रमण केशी एवं राजा प्रदेशी के बीच होते हैं। केशी प्रदेशी के सघन संशयों तथा उलझे विकल्पों का सही समाधान प्रस्तुत करते हैं । इस कृति में निबद्ध छोटेमोटे एवं व्यस्थित संवाद इस शैली के उत्कृष्ट नमूने हैं। यही कारण है कि यह कृति दार्शनिक होते हुए भी शीघ्रबोधगम्य है ।
समयसुन्दर के फुटकर गीतों में भी इस शैली के दर्शन होते हैं। उदाहरणार्थ एक लघु गीत प्रस्तुत है
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जीव प्रतिकाया कहर, मुनइ मुकि कां समझावइ रे । मइ अपराध न को कियउ, प्रियु को समझावइ रे ॥ राति दिवस तोरी रागिणी, राखुं हृदय मझारि रे । सीता हूँ सहु सहूं, तूं छइ प्राण आधार रे ॥ प्रीतड़ी वालंभ पालियइ, नवि दीजियइ छेह रे । कठिन हियुं नवि कीजियइ, कीजइ सुगुण सनेह रे ॥ जीव कहइ काया प्रति, अम्ह को नहीं दोस रे । खि राचइ विरचइ खिण, तेनहउ किर्सीय भरोस रे ॥ कारिमउ राग काया तणउ, कूट कपट निवास रे । गुण अवगुण जानइ नहीं, रहइ चित्त उदास रे ॥ १
१. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, जीव काया गीतम् (१-५)
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