Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ६.१.४.२ चौबीसी जिनसवैया
विवेच्य कृति सवैयों और कवित्तों में निबद्ध है। प्रत्येक में एक-एक तीर्थंकर की स्तुति की गई है, किन्तु इस स्तवन में छन्दों में व्यतिक्रम पाया जाता है। किसी तीर्थङ्कर की स्तुति सवैया में है, तो किसी की कवित्त में। तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्व की स्तुति इसमें उपलब्ध नहीं होती। उसके स्थान पर वसन्त का वर्णन किया गया है, जो कि अप्रासंगिक ही लगता है। यह संभव है कि समयसुन्दर ने शायद पार्श्वनाथ के संबंध में भी कोई सवैया कवित्त बनाया हो, जो पाण्डुलिपि करते समय मूल में ही त्रुटित हो गया हो। वैसे जिस पाण्डुलिपि के आधार पर इस 'चौबीसी जिन सवैया' को प्रकाशित किया गया है, वह पाण्डुलिपि त्रुटित है। उदाहरण के लिए सातवें और आठवें सवैये में शब्द त्रुटित पाये गये
तेईसवें सवैये का प्रारम्भ 'बे बब्बीहा भाई' से होता है। इसमें वसन्त का वर्णन है, जो विरह से संबंधित है। अत: यहाँ बब्बीहा का अर्थ पपीहा हो सकता है। विश्लेष्य रचना में २५ चतुष्पद हैं। इसका रचना-काल एवं स्थल दोनों अज्ञात हैं। ६.१.४.३ ऐरावतक्षेत्र चतुर्विंशति जिन-गीतानि
'ऐरावतक्षेत्र-चतुर्विंशति जिन-गीतानि' का रचना-समय सं० १६९७ है। हाथीशाह के आग्रह से एवं जिनसागरसूरि की कृपा से समयसुन्दर ने प्रस्तुत कृति का प्रणयन किया। इसका कवि ने भी उल्लेख किया है -
संवत सोल सताणुया वरसे, जिनसागर सुपसाया।
हाथी शाह तणइ आग्रह कहइ, समयसुन्दर उवझाया रे।
प्रस्तुत कृति में ऐरावत-क्षेत्र में उत्पन्न चौबीस तीर्थङ्करों का गुणगान किया गया है। कवि ने अपने वर्णन का आधार 'समवायांगसूत्र' बताया है। सभी तीर्थङ्करों के संबंध में अलग-अलग राग में अलग-अलग गीत रचित हैं। उनके नाम अधोलिखित हैं --
१.चंदानन, २. सुचंद, ३. अग्गिसेण, ४. नंदिसेण, ५. इसिदिन, ६.सामचन्द, ७. बयधारि, ८. जुत्तसेन, ९. अजितसेण, १०. सिवसेन, ११. देवसेन, १२. नक्खत्तसत्त, १३. अस्संजल, १४. अनन्त, १५. उपशान्त, १६. गुत्तिसेण, १७. अतिपास, १८. सुपास, १९. मरुदेव, २०. श्रीसीधर, २१. सामकोठ, २२. अग्गसेण, २३. अग्गिपुत्त, २४. वारिसेण।
उपर्युक्त चौबीस तीर्थङ्करों के गीतों में प्रथम सात तीर्थङ्करों के गीत अभी तक अनुपलब्ध हैं।
इन रचनाओं से कवि समयसुन्दर परमात्मा के चरणों में पूर्ण समर्पित-से लगते हैं। वे भी कबीर, तुलसी, मीरा, सूर की तरह गाते हुए परिलक्षित होते हैं -
अहो मेरे जिन कुं कुण ओपमा कहूँ। काष्ठ कलप चिन्तामणि पाथर, कामगवी पसु दोष ग्रहूँ॥
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