Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ
अनुपलब्ध हैं।
६.१.३.२ श्री पार्श्वनाथाष्टकम्
प्रस्तुत अष्टक राजस्थानी, गुजराती एवं संस्कृत भाषा मिश्रित है । यह अष्टक न केवल कवि के भाषा संबंधी ज्ञान का परिचय देता है, अपितु कवि की प्रशस्त भक्ति का भी परिचय देता है । पठन-पाठन में यह अष्टक अति रमणीय है ।
इसमें कवि ने अपने आराध्य प्रभु पार्श्व के चरणों में अन्तर्प्रार्थना के सुष्ठुसुमन अर्पित किये हैं । कवि का कहना है कि जिसने पार्श्वप्रभु की भक्ति की है, वह धन्य है और उसने सर्वमुख प्राप्त किया है। मैंने भी उनकी भक्ति की है, जिससे मेरी आशाएँ फलीभूत हो गई हैं। मेरा दुःख दूर हो गया और मुझे बहुत सुख प्राप्त हुआ है । वास्तव में पार्श्वप्रभु त्रिलोकपूज्य एवं गुणनिधान हैं। उनके गुणों का वर्णन करने में इस कलिकाल में कोई कवि समर्थ नहीं है
तुम्हारी बड़ाई नको वक्तुमीश, कलिकाल माहे कविर्वागरीशः । ती या भूरिभक्त्या, सदा पाय सेवूं तवातीव शक्त्या ॥ प्रस्तुत गीत का रचना - काल आदि ज्ञात नहीं है ।
६.१.४ भाषा में निबद्ध रचनाएँ ६.१.४.१ चौबीसी
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जैन साहित्य में 'चौबीसी' रचना स्तुतिपरक साहित्य की एक उत्तम थाती है। इसमें गीतिकाव्य के रूप में चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है, जो कि कवि की असीम भक्ति की परिचायक है। इस कृति में कवि की आत्म-अनुभूति की ही अभिव्यंजना हुई है । अत: पाण्डित्य-प्रदर्शन की गन्ध का इसमें अभाव है। हर गीत में कवि की अगाध श्रद्धा उमड़ती हुई प्रतीत होती है । कवि सहजता से अपने हृदयोद्गार व्यक्त करता है। ऋषभदेव मोरा हो, ऋषभदेव मोरा हो । पुण्य संयोगइ पामीहा मई दरिसण तोरा हो ॥ चउरासी लक्ष हूँ भम्यऊँ, भव का फेरा हो । दुःख अनन्ता मई सह्या, स्वामी तिहां बहुतेरा हो || चरण न छोडूं ताहरा, सामी अब की फेरा हो। समयसुन्दर कहइ तुम्ह थइ, स्वामी कउण भलेरा हो ॥
इस कृति में जैन-धर्म के चौबीस तीर्थङ्करों में से प्रत्येक का पृथक्-पृथक् गीत में स्तवन किया गया है। रचना के अन्त में कलश लिखकर उसका उपसंहार भी दिया है । यह कृति अहमदाबाद में वि० सं० १६५८, विजयादशमी को सम्पूर्ण हुई । यद्यपि कवि ने इसका 'चतुर्विंशति तीर्थङ्कर - गीतानि' नाम दिया है, लेकिन सामान्यतया इसे ' चौबीसी' कहा जाता है।
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