Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कवि ने प्रस्तुत कथा के माध्यम से कर्म-विपाक के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। मनुष्य सामान्य से लाभ या विषय-भोग की कामना से प्रेरित होकर कभी-कभी ऐसा कुत्सित तथा क्रर कर्म कर बैठता है कि जिसका दुष्फल उसे सुदीर्घकाल तक भोगने के लिये बाध्य होना पड़ता है। द्रौपदी की कथा इस तथ्य को सहज रूप से प्रदर्शित करती है। 'द्रौपदी-चौपाई' की कथावस्तु संक्षेप में यों है -
__द्रौपदी के पूर्वजीवन की कथा उसके नागश्री ब्राह्मणी के भव से प्रारम्भ करते हुए कवि ने लिखा है कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चम्पा नामक एक नगरी थी। उसमें तीन ब्राह्मण-बन्धु निवास करते थे- सोम, सोमदत्त और सोममूर्ति। उनकी तीन पत्नियाँ थीं - नागश्री, भूतश्री और यक्षश्री। सभी एक साथ रहते थे और वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।
एक दिन नागश्री ने अपने परिवार के लिए भोजन तैयार किया। भोजन में उसने उत्तम रीति से तूंबे की तरकारी बनायी, किन्तु जब उसने उसे चखा तो वह कड़आ एवं विषैला लगा। अत: उसने उपालम्भ से मुक्ति पाने के लिए उस तरकारी को एक स्थान पर छिपाकर रख दिया और दूसरी तरकारी बना ली। परिवार के सभी सदस्य भोजन करके अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गए। नागश्री गृह में अकेली रह गई। उसी समय मासक्षमण के पारणे हेतु धर्मरुचि नामक एक मुनि भिक्षा के लिए उसके घर आए। नागश्री ने तपस्वी मुनि के पात्र में वह विषाक्त शाक उंडेल दिया।
मनि उसी आहार को लेकर अपने गरु धर्मघोष स्थविर के समीप पहँचे। गरु उसकी गन्ध से ही समझ गये कि यह भिक्षा विषयुक्त है। औपचारिक परीक्षण करके उन्होंने शिष्य को उसे किसी एकान्त स्थान में विसर्जित करने की आज्ञा दी। धर्मरुचि गये। उन्होंने उसमें से एक बन्द लेकर भूमि पर गिरा दिया और उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगे। गन्ध से चींटियाँ एकत्र हो गयीं। ज्यों ही वे उसके रस का आस्वादन करतीं, जीवन से हाथ धो बैठतीं। यह देख मुनि ने यह सोचते हुए उस तरकारी को स्वयं ही खा लिया कि यदि उस तरकारी की एक बून्द से इतनी चीटियाँ अपने प्राण खो बैठीं, तो ज्ञात नहीं, सम्पूर्ण तरकारी से कितनी चींटियों की हिंसा होगी। विष ने अपना प्रभाव दिखाया और मुनि ने समभावपूर्वक अपनी देह का विसर्जन कर दिया।
धर्मरुचि के न लौटने पर गुरु ने दूसरे शिष्य को उनकी खोज के लिए भेजा। उसने सारी वस्तुस्थिति स्पष्ट की। नागश्री का पाप छिपा न रहा। सर्वत्र उसकी चर्चा फैल गई। घरवालों ने ताड़ना-तर्जना करके उसे घर से बाहर निकाल दिया। वह भिखारिन बन गई। अन्तिम अवस्था में वह सोलह रोगों से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हुई। नरकगति, तिर्यञ्चगति आदि विविध गतियों में जन्म-मरण करती हुई उसने तीव्र दुखों का अनुभव किया और पुन: मनुष्य-भव प्राप्त किया।
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