Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सं. ४७७ के शीलादित्य के शासन-काल में हुए थे। यद्यपि धनेश्वरसूरि का यह कथन कि स्वयं महावीर शत्रुञ्जय तीर्थ पर गये थे, उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध नहीं होता। कवि ने इस प्रकार उल्लेख किया -
संवत च्यार सत्योतरइ, हुयउ धनेसर सूरि। तिण सेजेज महातम कीयउ, सिलादित्त हजूरि ॥ वीर जिणिंद समोसर्या, सेनुंज उपरि जेम।
इन्द्रादिक आगई काउ, सेजेज महातम एम ॥२ यद्यपि विवेच्य रचना में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर यह लगता है कि कवि ने धनेश्वरसूरि कृत 'शत्रुजयमाहात्म्य' को अपने रास की कथावस्तु का आधार बनाया है। कवि ने भी वह बात सूचित की है। वस्तुतः धनेश्वरसूरि की 'शत्रुजयमाहात्म्य' नामक रचना में शत्रुजय तीर्थ की महिमा बताने के लिए एक कथा वर्णित की गई है, जबकि प्रस्तुत रचना में उस ढंग की कोई कथा नहीं है। हाँ, जहाँ समयसुन्दर श@जयोद्धार की बात कहते हैं, उतना प्रसंग अवश्य 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' पर आधारित है। १. समयसुन्दर ने धनेश्वरसूरि के काल का जो उल्लेख किया है, वह प्राप्त प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता है। कवि के अनुसार धनेश्वरसूरि ने शीलादित्य की उपस्थिति अथवा उनके अनुरोध पर श→जयमाहात्म्य लिखा था। समयसुन्दर ने इस काल को संवत् ४७७ बताया है। जब केवल संवत् शब्द का उल्लेख होता है, तो वहाँ विक्रम संवत् ही ग्रहण किया जाता है, किन्तु यहाँ 'संवत्', वल्लभी संवत् के रूप में प्रयुक्त है, जैसा कि अन्य साक्ष्यों से ज्ञात होता है। समयसुन्दर ने अपनी एक अन्य कृति गाथा-सहस्री में लिखा है -
पणसयरी वाससयं तिण्णि सयाई अइक्कमेऊणं।
विक्कमकालाऊ तउ वलहीभंगो समुप्पन्नो ॥ अर्थात् विक्रमकाल से ३७५ वर्ष अतिक्रमण करते हुए वलभीभङ्ग हुआ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कवि द्वारा उल्लिखित धनेश्वरसूरि का समय विक्रम संवत् ८५२ है; परन्तु शत्रुञ्जय-माहात्म्य में वि० सं० ११९९ से धनेश्वरसूरि विक्रम संवत् ८५२ में हुए - सिद्ध नहीं होता है। धनेश्वरसूरि वि० सं० १२३० के बाद ही हुए होंगे। इस संबंध में महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द ओझा एवं मोहनलाल दलीचन्द देसाई के मत उल्लेखनीय हैं। उन्होंने लिखा है कि वास्तव में वल्लभी में शीलादित्य नाम के ६ राजा हो गये हैं, पर जैन लेखक एक ही शीलादित्य का उल्लेख करते हैं। धनेश्वरसूरि भी कई हो गए हैं। सम्भवत: ये धनेश्वरसूरि तेरहवीं और बाद की सदी में हुए लेखक हैं। (विस्तृत जानकारी के लिये दृष्टव्य - (क) राजपूताने का इतिहास, खण्ड १, पृष्ठ ३८५-३८९; (ख) जैन साहित्य नो इतिहास, पृष्ठ १४५-१४६ पर टिप्पणी) २. शत्रुजय-रास (ढाल १ से पूर्व दूहा २-२)
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