Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १.३ मंगलवाद
१.४ चातुर्मासिक व्याख्यान १.५ कालकाचार्य-कथा
१.६ श्रावकाराधना १.७ समाचारी-शतक
१.८ विशेष-शतक १.९ विचार-शतक
१.१० विशेष-संग्रह १.११ दीक्षाप्रतिष्ठा-शुद्धि
१.१२ विसंवाद-शतक १.१३ खरतरगच्छ-पट्टावली १.१४ कथाकोश १.१५ सारस्वत-व्याकरण-रहस्य १.१६ फुटकर प्रश्नोत्तर १.१७ प्रश्नोत्तर-सार-संग्रह
१.१८ द्रौपदी-संहरण १.१९ सारस्वतीय शब्द-रूपावली १.२० तृणाष्टकम् १.२१ रजाष्टकम्
१.२२ उद्गच्छसूर्यबिम्बाष्टकम् १.२३ समस्याष्टकम् १.१ भावशतक
प्रस्तुत ग्रन्थ ग्रन्थकार की प्रथम उपलब्ध कृति है। यह ग्रन्थ काव्य-शास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थ है। इसमें उत्तम काव्य, जिसमें वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ अधिक आकर्षक होता है, का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ का रचना-काल ग्रन्थकार ने इस प्रकार दिया है -
शशिसागररसभतलसंवति, विहितं च भावशतकमिदम्।
इसमें उल्लिखित 'सागर' को यदि ४ संख्या का प्रतीक माना जाये, तो यह ग्रन्थ सं० १६४१ में और यदि 'सागर' को ७ का प्रतीक माना जाय, तो सं० १६७१ में यह ग्रन्थ गुम्फित हुआ था; किन्तु सभी विद्वानों ने इसे सं० १६४१ में रचित माना है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि लालभाई दलपतभाई पुस्तकालय, अहमदाबाद में उपलब्ध है। सम्प्रति, यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। १.२ अष्टलक्षी
संस्कृत भाषा में जहाँ एक ओर एक ही शब्द के अनेक पर्याय शब्द हैं, वहाँ कतिपय ऐसे शब्द भी हैं, जो अनेकार्थक होते हैं। संस्कृत भाषा के इस वैशिष्ट्य को सर्वप्रथम जैन-आचार्यों, मुनियों ने प्रयुक्त किया। पांचवीं-छठी शताब्दी से जैन-कवियों ने अनेकार्थक काव्य-रचना प्रारम्भ कर दिया था। पन्द्रहवीं से बीसवीं शताब्दी तक इस क्षेत्र में जैनकवियों ने प्रचुर कार्य किया है। इस दिशा में सम्प्रति पर्यन्त लिखित रचनाओं में यदि किसी रचना का नाम गौरव के साथ लिया जाए, तो वह प्रस्तुत कृति है। इसके बारे में डॉ० गुलाबचन्द चौधरी ने लिखा है कि महोपाध्याय समयसुन्दर कृत 'अष्टलक्षी' भारतीय काव्य-साहित्य का ही नहीं, विश्व-साहित्य का अद्वितीय रत्न है। १. जैनसाहित्य का वृहद् इतिहास, पृष्ठ ५२३
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