Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मूल ग्रन्थ प्राकृत-भाषा में है और पद्य-बहुल है, कहीं-कहीं गद्य भी है। कवि ने उसकी व्याख्या संस्कृत गद्य में की है। वृत्ति मुख्यतः शब्दार्थ-प्रधान है। वृत्तिकार ने इस वृत्ति का नाम 'दशवैकालिक-दीपिका' भी रखा है। इसकी भाषा सरल एवं शैली सुबोध है। प्रारम्भ में वृत्तिकार ने स्तम्भनाधीश (पार्श्वनाथ) को नमस्कार किया है तथा दशवैकालिक सूत्र का शब्दार्थ लिखने का संकल्प किया है
स्तम्भनाधीशमानन्य, गणिः समयसुन्दरः।
दशवैकालिके सूत्रे शब्दार्थ लिखति स्फुटम्॥ 'दशवैकालिक सूत्र' में दस अध्ययन हैं। कवि ने अपनी वृत्ति' में अध्ययनों के नाम, श्लोक-संख्या, वर्ण्य-विषय, उसकी व्याख्या आदि इस प्रकार दिये हैं -
प्रथम अध्ययन का नाम 'दुमपुफ्फिया-द्रुमपुष्पिका' है। इसमें मात्र ५ श्लोक हैं। कवि ने इस अध्ययन की व्याख्या करते हुए कहा है कि इसमें धर्म की प्रशंसा एवं मधुकरी-वृत्ति का वर्णन किया गया है। वृत्तिकार ने अपनी वृत्ति में इसी की व्याख्या की
द्वितीय अध्ययन सामण्णपुव्वयं - श्रामण्यपूर्वक' संज्ञक है। इसमें कुल ११ श्लोक हैं। इस अध्ययन में जिस बात के बिना श्रामण्य या श्रमणत्व नहीं होता, उसकी चर्चा होने से इसका नाम 'सामणपुव्वयं' रखा गया है। संक्षेप में इसमें संयम में धृति का उपदेश है। समयसुन्दर ने अपनी टीका में इन्हीं बातों को स्पष्ट किया है। अन्तिम गाथाओं की व्याख्या करते हुए कवि ने मुनि रथनेमि और महासती राजिमती के कथा-प्रसंग का भी उल्लेख किया है एवं मुनि के विकार को नष्ट करने के लिए प्रदत्त उपदेश का रुचिर विवेचन किया है।
तृतीय अध्ययन 'खुड्डियायार-कहा - क्षुल्लकाचार-कथा' के नाम से निर्दिष्ट है। यह अध्ययन १५ श्लोकों में आबद्ध है। इसमें आचार और अनाचार में विवेक का निरूपण किया गया है। समयसुन्दर कृत इस अध्ययन की व्याख्या का यही सार है।
चतुर्थ अध्ययन २२ गद्य सूत्रों और २८ श्लोकों में प्रणीत है, जिसे 'छज्जीवणियाषड्जीवनिका' नाम दिया गया है। इसमें जीव-अजीव के स्वरूप का निर्देश, चरित्र-धर्म का निरूपण तथा हिंसा के विविध रूपों से बचने का उपदेश दिया गया है। समयसुन्दर ने अपनी वृत्ति में उपर्युक्त सभी बातों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है।
पंचम अध्ययन का शीर्षक 'पिण्डेसणा – पिण्डैषणा' है। यह दो उद्देशकों में विभक्त है। कवि का कथन है कि पहले उद्देशक में एषणा-गवेषणा, ग्रहणेषणा और भोगेषणा की शुद्धि का निर्देश है; अर्थात् आहार आदि की गवेषणा की विधि, भक्तपान लेने की विधि, भोजन करने की आपवादिक विधि, भोजन करने की सामान्य विधि इत्यादि का वर्णन है। वृत्तिकार ने इस तथ्य का वृत्ति में विश्लेषण किया है। यह उद्देशक
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