Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तत्पश्चात् इसके अन्त में दो चूलिका भी दी गई हैं। 'रइवक्का-रतिवाक्या' संज्ञक प्रथम चूलिका में स्थिरीकरण का उपदेश 'विवित्तचरिया - विविक्तिचर्या' संज्ञक द्वितीय चूलिका में विविक्तचर्या का उपदेश है अर्थात् इसमें श्रमण की चर्या, गुणों और नियमों का निरूपण है। १६ श्लोकों में इस चूलिका की रचना हुई है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 'दशवैकालिक-वृत्ति' में आचार-गोचर की प्ररूपणा के अतिरिक्त अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन भी हुआ है। वृत्ति के अन्त में वृत्तिकार ने हरिभद्र कृत टीका को विषम बताते हुए अपनी टीका को सुगम बताया है। इसका ग्रन्थमान ३४५० श्लोक प्रमाण है -
हरिभद्र कृ ता टीका वर्तते विषमा परम् । मया तु शीघ्रबोधाय शिष्यार्थं सुगमाकृता ॥ चन्द्रकुले श्री खरतरगच्छे जिनचन्द्रसूरिनामानः। जाता युगप्रधानास्तच्छिष्यः सकलचन्द्रगणिः॥ तच्छिष्य समयसुन्दरगणिना चक्रे च स्तम्भतीर्थपुरे । दशवैकालिक-टीका-शशिनिधि-शृंगार-मित-वर्षे ॥ शब्दार्थवृत्तिटीकायाः श्लोकामानमिदं स्मृतम्।
सह त्रत्रयमग्रे च पुनः सार्ध चतु: शतम् ॥१ कविवर समयसुन्दर विरचित 'दशवैकालिक-सूत्र-वृत्ति' का श्री जिनयशसूरि ग्रन्थरत्नमाला समिति, खम्भात द्वारा वि० सं० १९७५ में प्रकाशन हो चुका है। २.११ रघुवंश-वृत्ति (अर्थलापनिका)
__रघुवंश महाकवि कालिदास रचित महाकाव्यों में एक है। इसमें सूर्यवंशी राजाओं में दिलीप से लेकर अग्निवर्ण पर्यन्त राजाओं का वर्णन किया गया है, किन्तु मुख्य रूप में दिलीप, अज, दशरथ और राम के चरित्र का ही वर्णन प्राप्त होता है। अन्य राजाओं का अत्यन्त संक्षिप्त चरित्र-चित्रण किया गया है।
इस ग्रन्थ में कवि की कल्पना के कुछ उत्तम और विलक्षण उदाहरण मिलते हैं। अतएव यह काव्य अत्यधिक लोकप्रिय रहा है। सामान्य व्यक्ति को भी इस काव्य का रसास्वादन हो सके, इस उद्देश्य से महोपाध्याय समयसुन्दर ने काव्य पर 'अर्थलापनिका' नामक एक सरल वृत्ति की रचना की है। समयसुन्दर के अलावा अन्य जैन विद्वानों ने भी रघुवंश की व्याख्या की है, जिनमें चारित्रवर्धन, धर्ममेरु, गुणविनय (गुणविजय) श्री विजयगणि, सुमतिविजय, हेमसूरि, रत्नचन्द्रगणि, मलयसुन्दरगणि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। समयसुन्दर ने इस वृत्ति में काव्य के अक्षरार्थ की समास आदि के विश्लेषण के १. दशवैकालिकवृत्ति, प्रशस्ति (१-३, ७) २ द्रष्टव्य - जिनरत्नकोश, पृष्ठ ३२५-२६
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