Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ उपसंहार के पश्चात् की अन्त्य दो गाथाएँ सम्भवतः नन्दिषेण मुनि की रचित न होकर स्तव की महिमा प्रदर्शित करने वाली अन्यकृत गाथाएँ हैं, क्योंकि कवि के पूर्व गोविन्दाचार्य ने इस स्तोत्र की वृत्ति में उन दो गाथाओं की वृत्ति नहीं लिखी है। वर्तमान में इस स्तव की प्रकाशित पुस्तकों में और भी एक अतिरिक्त गाथा प्राप्त होती है, लेकिन प्रस्तुति वृत्ति में वह गाथा अनुपलब्ध है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि वर्तमान में वह प्रचलित गाथा भी अन्यकृत है और अर्वाचीन भी। यति सूर्यमल्ल ने दो और गाथाओं का उल्लेख किया है, परन्तु ये सब गाथाएँ अन्यकृत तथा अर्वाचीन सिद्ध होती हैं।
२. द्वितीय स्मरण श्री लघुअजित-शान्तिस्मरण-स्तव' के कर्ता जिनवल्लभसूरि हैं। इस स्तव में भी दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ की एवं सोलहवें तीर्थङ्कर शान्तिनाथ की सद्भावसिक्त स्तुति की गई है। स्तोत्र की आलंकारिक छटा भी रमणीय है। इस स्तव की वृत्ति करते हुए वृत्तिकार ने यह लिखा है कि प्रस्तुत स्तोत्र की रचना विशेषतः संघ के श्रेय एवं पाक्षिकादि पर्यों में बोलने के लिए हुई है। खरतरगच्छ में आज भी त्रयोदशी के दिन संध्याकालीन प्रतिक्रमण के अन्तर्गत संघ-श्रेयार्थ इसका वाचन होता है।
३. 'णमिऊण' नामक तृतीय स्मरण की वृत्ति लिखते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि मानतुंगाचार्य ने महाभय का नाश करने के लिए प्रस्तुत स्तोत्र की रचना की है। उन्होंने तेइसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ को भयनिवारक माना है। महाभय सोलह अथवा आठ माने जाते हैं। प्रस्तुत स्तव में अष्टभय-निवारण-लक्षण रूप अर्हम् पार्श्वनाथ के अतिशयों का वर्णन किया गया है। कर्ता ने प्रथम अष्ट भयनिवारक अतिशयों का निर्देश करके 'रोगजलजलण' आदि गाथाओं द्वारा अपना उद्देश्य बताया है। यह स्तव २१ पद्यों में निबद्ध है। वर्तमान में प्रकाशित कतिपय पुस्तकों में ३ अन्य पद्य भी उपलब्ध होते हैं, किन्तु वे अर्वाचीन तथा अन्यकृत लगते हैं।
४. 'तंजयउ' नामक चतुर्थ स्मरण २६ गाथाओं में निबद्ध है। इसके रचयिता जिनदत्तसूरि हैं। प्रस्तुत स्तोत्र की वृत्ति के आदि में वृत्तिकार लिखते हैं कि जिनदत्तसूरि ने रोग तथा व्यन्तर-सम्बन्धी कोप से संघ-हितार्थ इस स्तोत्र की रचना की। इसमें तीर्थ, तीर्थङ्कर सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, गुरु, चतुर्विंश यक्ष-यक्षिणी, षोडश विद्यादेवी, गृह-गोत्र-जल-क्षेत्र-स्थल-वन-पर्वतवासी देव-देवी, दस दिक्पाल, नवग्रह, भुवनपतिदेव, तीर्थङ्कर महावीर, तीर्थङ्करों के गणधर, सुधर्मा स्वामी एवं जिनशासनसेवी देवों की महिमादि बताते हुए उनकी क्रमशः स्तुति की गई है। वृत्तिकार ने आवश्यक टिप्पणी सहित इन सबका विस्तृत विश्लेषण किया है।
१. द्रष्टव्य – पंच प्रतिक्रमण सूत्र तथा नवस्मरण, पृष्ठ ३६७ २. द्रष्टव्य - जैन-रत्नसार, पृष्ठ ६६१
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