Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ
१४९ तदुपरान्त प्रद्युम्न एक छोटे साधु का रूप बनाकर रुक्मिणी के महल में गया। रुक्मिणी पुत्र के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी, क्योंकि केवली-कथित वचनानुसार पुत्र के आगमन के सारे लक्षण दृष्टिगत हो रहे थे। उसने साधु को आते देख उनका स्वागत किया। साधु सीधे कृष्ण के सिंहासन पर आसीन हो गया। उसने साधु से आने का कारण पूछा। वह बोला -
सोल वरस नुं पारणुं रे, नहिं पीधु माता - दूध रे।
अधिक तप्यउ तप आकरु रे, काया की सुध रे॥ रुक्मिणी ने उसे ढेर-सारे लड्डू खिलाये। उधर सत्यभामा ने प्रद्युम्न के कथनानुसार कार्य किया। इस प्रकार सत्यभामा के केश रुक्मिणी से पहले उतर गए। सत्यभामा ने दासियों को रुक्मिणी से केश मंगवाने के लिए भेजा, पर प्रद्युम्न ने उन्हें भगा दिया।
तभी नारद मुनि वहाँ पधार गये। उन्होंने रुक्मिणी से प्रद्युम्न का परिचय कराया। माँ पुत्र की पुनः प्राप्ति पर अत्यन्त हर्षित हुई। दोनों के आनन्द का पार नहीं था। प्रद्युम्न ने माता को रथ में बिठाकर समस्त यादवों को ललकारा कि यदि किसी वीर में सामर्थ्य हो, तो वह रानी रुक्मिणी को मुझसे छुड़ाकर ले जाए। श्रीकृष्ण अपने योद्धाओं के साथ संग्राम-स्थल पर आ पहुँचे। प्रद्युम्न ने विद्या-बल से सारी सेना को निद्रा की गोद में सुला दिया। कृष्ण के शस्त्र भी निरर्थक हो गये। आकस्मिक, कृष्ण की दाहिनी भुजा फड़कने लगी। उधर से नारदमुनि भी आ गये। उनके द्वारा उनके पिता-पुत्र के संबंध का भेद खुलते ही संग्राम-स्थल, उत्सव-स्थल बन गया। सभी लोगों के आग्रह पर भी प्रद्युम्न ने दुर्योधन की पुत्री उदधिकुमारी से यह कहते हुए विवाह नहीं किया कि वह मेरी भाभी है। प्रद्युम्न का पचास विद्याधर-कन्याओं से पाणिग्रहण हुआ और वह सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगा। यहाँ प्रथम खण्ड समाप्त हो जाता है।
द्वितीय खण्ड के आरम्भ में कवि ने 'काश्मीरी मुख-मण्डणी' नामक देवी को नमस्कार किया। (यह देवी जैन थी अथवा जैनेतर, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। हाँ! यह कवि की इष्ट देवी थी, इतना स्पष्ट है।) इस प्रकार मध्य मंगल करते हए कवि ने लिखा है कि सत्यभामा ने प्रद्युम्नवत्-पुत्र-प्राप्ति की अपनी तीव्र अभिलाषा को श्रीकृष्ण के सम्मुख व्यक्त की। श्रीकृष्ण ने हरिणगमेषी देव की आराधना की। देव ने प्रकट होकर कृष्ण को एक हार प्रदान किया और बोला कि आप जिसके गले में यह हार पहनायेंगे, उसी के पुत्र-रत्न उत्पन्न होगा।
प्रद्युम्न ने अपनी विद्या से यह बात अवगत कर ली। उसने रानी जाम्बवती को सत्यभामा का रूप दे दिया तथा समझा-बुझाकर कृष्ण के पास प्रेषित किया। कृष्ण ने उसे सत्यभामा समझकर वह हार सस्नेह उसके गले में सुशोभित कर दिया। कुछ देर पश्चात् सत्यभामा भी आई। कृष्ण ने अपने साथ छल हुआ जानकर उसे सान्त्वना देते हुए कहा
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