Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ
नमि एक बार छ: मास तक दाह-ज्वर की वेदना से पीड़ित रहा। उपचार चला। दाहज्वर शान्त करने के लिए रानियाँ स्वयं चन्दन घिसने लगीं। उनके हाथों में पहिने हुए कंगण बज रहे थे। उनकी आवाज नमि सहन नहीं कर सके। अतः रानियों ने सौभाग्यसूचक एक-एक कंगण रखा और सब कंगण उतार दिए। आवाज बन्द हो गई। इस घटना ने राजा की मनोगति को ही बदल दिया। राजा ने पूछा - अब कंगण का शब्द क्यों नहीं होता? रानियों ने कहा - स्वामिन्! कंगणों के घर्षण का शब्द आपको अप्रिय लगा, इसलिए हमने एक-एक कंगण रखकर शेष उतार दिए। अब अकेला कंगण भला कहाँ से शब्द करे?
नमि प्रबुद्ध हो गया। वह विचारने लगा कि जहाँ अनेक हैं, वहाँ संघर्ष है, पीड़ा है। जहाँ एक है, वहाँ पूर्ण शान्ति है। उदात्त जागरण में राजा को जातिस्मरण-ज्ञान हो गया और वह प्रतिबुद्ध होकर निर्ग्रन्थ मुनि हो गया।
आकस्मिक ही नमि को मुनि बनते देख इन्द्र परीक्षा के लिए ब्राह्मण रूप धारण कर आया। उसने नमि को कर्त्तव्य-बोध कराया और उसे लुभाने का प्रयत्न किया, लेकिन नमि ने गहरी आध्यात्म की बातें की, भेद-विज्ञान की चर्चा की और संसार की असारता का उसे बोध दिया। जब इन्द्र ने उसे देखा कि नमि राजर्षि अपने संकल्प पर अडिग है, तो उसने अपना मूल स्वरूप उजागर किया। उनके गुणों की प्रशंसा करके वह चला गया। इधर नमि भी विहार करने लगे। दोनों में जो प्रश्नोत्तर हुए, उसके लिए कवि ने बताया कि यह मैंने 'उत्तराध्ययनसूत्र' से उद्धृत किए हैं। यह तृतीय खण्ड कवि ने उग्रसेनपुर में रचा। इसमें १७ ढालें हैं। इस खण्ड के रचना-काल की सूचना प्राप्त नहीं होती है।
चतुर्थ खण्ड में कवि समयसुन्दर कहते हैं कि मगध देश के पुण्ड्रवर्द्धन नगर में सिंहरथ राजा राज्य करता था। एक बार राजा एक नये अश्व पर सवार होकर घूमने निकला। अश्व विपरीत शिक्षित था। वह राजा को बारह योजन दूर ले गया। वहाँ पर्वत पर एक सप्त मंजिल महल देखकर राजा उसमें चला गया। वहाँ एक सुन्दरी थी। दोनों के प्रेम-तन्तु दृढ़ हो गये। दोनों ने गन्धर्व-विवाह कर लिया। राजा ने उससे महल में अकेली रहने का कारण पूछा। वह बोली -
एक बार क्षित्रप्रतिष्ठ (क्षितिप्रतिष्ठित) नगर के राजा ने राज-सभा में चित्रांकन के लिए चित्रकारों को समान भित्तिखण्ड बाँट दिए। उसमें चित्रांगद नाम का एक वृद्ध चित्रकार भी था। एक बार उसकी पुत्री कनकमञ्जरी उसके लिए भोजन ला रही थी। मार्ग में उसने एक अश्वारोही को जनसंकुल में से अश्व दौड़ाते देखा। चित्रांगद भोजन आया देख शौच के लिए जंगल चला गया। कनकमञ्जरी ने पीछे से एक मयूर-चित्र बना दिया। राजा निरीक्षणार्थ आया। उसने मयूर के हूबहू चित्र को मयूर समझ पकड़ना चाहा। कनकमञ्जरी ने कहा- तीन पायोंवाला पलंग गिर जाता है, अब चौथा पाया मिल गया।
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