Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ
वक्ष्येहं कल्पसूत्रस्य, व्याख्यानि नव स्फुटम्। सुगमानि सुबोधानि, नानाग्रन्थानुसारतः। न सूत्र नावचूरिश्च, न वृत्तिर्नान्यपत्रकम् ।
ग्राह्यं व्याख्यानवेलायां, पुस्तकेस्मिन पुरः (कर) स्थिते ॥ अर्थात् मैं 'कल्पसूत्र' के नव व्याख्यानों का अनेक ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए स्पष्ट, सुगम और सुबोध रूप में विवेचन करता हूँ; जिससे यदि व्याख्यान के समय यह पुस्तक हाथ में हो, तो न तो सूत्र की, अवचूरि की, न वृत्ति की या न ही अन्य किसी पत्र-पन्नों की जरूरत पड़ती है। आगे कवि कहता है -
सभासमक्षं व्याख्यानं, कल्पसूत्रस्य दुष्करम्। केषांचिदल्पबुद्धीनां, बहूपायप्रलोकनात् ॥ कृत्वा तदनुकम्पां तां, मया कल्पलता कृता।
सुगमा तत एतस्यां, एकस्यामेव कथ्यताम् ॥२ अर्थात् कितने ही अल्पबुद्धिवालों को अनेक उपाय करने के पश्चात् भी सभासमक्ष 'कल्पसूत्र' व्याख्यान करना दुष्कर है, इसलिए उन पर अनुकम्पा करके यह 'सुगम' 'कल्पलता' मैंने रची है।
डा० मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने अपने निबन्ध में उल्लेख किया है कि डा० जेकॉबी के कथनानुसार यह जिनप्रभ मुनि रचित 'संदेहविषौषधि' नाम की टीका का मात्र संक्षिप्त सार है; परन्तु कवि ने स्वयं इस प्रकार का उल्लेख कहीं भी नहीं किया है। अतः यह कहना युक्तिसंगत नहीं है।
अब इस वृत्ति के रचना-काल के सम्बन्ध में प्रश्रचिह्न होता है। यद्यपि महोपाध्याय विनयसागर के अनुसार इसकी रचना वि० सं० १६६९ में सम्पन्न हुई, डा० मोहनलाल मेहता ने भी इसी संवत् का उल्लेख किया है, लेकिन 'कल्पलता' में स्पष्ट रूप से कहीं भी रचना-काल व्यक्त नहीं हुआ है। कवि ने टीका के अन्त में प्रशस्ति में लिखा है कि मैंने श्री जिनराजसूरि के राज्य में और जिनसागरसूरि के यौवनराज्य में उनकी कृपा से यह टीका सम्पूर्ण की है -
१. कल्पलता, ग्रन्थारम्भ (२-३) २. कल्पलता, प्रशस्ति (१५-१६) . ३. जैनसाहित्य-संशोधक, अङ्क ३, खण्ड २, पृष्ठ २२ ४. कप्पसुत्तं, भूमिका ५. जैन साहित्य का इतिहास, भाग ३, पृष्ठ ५५
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