Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ (३०) प्रस्तुत प्रकरण में भी पूर्वोक्त ग्रन्थ का प्रमाण देते हुए निर्देश किया गया है कि मुनि को सामान्यतया दिन में नहीं सोना चाहिए, किन्तु यात्रा से परिश्रान्त एवं रुग्णादि होने पर दिन में सोना वर्जनीय नहीं है। (३१) इस प्रकरण में 'पुष्पिका' नामक उपांग के आधार पर पूर्वभव का विवेचन किया
(३२) इसमें हरिभद्रसूरि कृत 'देशवैकालिकसूत्रवृत्ति' के आधार पर यह कहा गया है कि यद्यपि साधु को सामान्यतः द्रव्य-संग्रह नहीं करना चाहिये, तथापि शिष्यादि के अध्ययन आदि के निमित्त द्रव्य रखे, तो अनुचित नहीं है। (३३) प्रस्तुत प्रकरण में देवेन्द्रसूरि कृत 'श्राद्धदिन-कृत्यसूत्रवृत्ति' के आधार पर यह कहा गया है कि श्रावक जिन-पूजा करने के लिए प्रासुक जल से स्नान करे, यदि वह उपलब्ध न हो तो अप्रासुक जल से भी स्नान कर सकता है, किन्तु वस्त्र सर्वदा श्वेत ही पहनना चाहिये। (३४) इसमें उपर्युक्त ग्रन्थ का प्रमाण देते हुए यह सिद्ध किया है कि पिरोई हुई पुष्पमाला से जिन-प्रतिमा-पूजन किया जा सकता है। (३५) प्रस्तुत अधिकार में देवेन्द्रसूरिकृत श्राद्धदिन-कृत्यसूत्रवृत्ति' के अनुसार यह बताया गया है कि जिनमंदिर में कार्य करने की अपेक्षा सामायिक करना अधिक श्रेयस्कर है। (३६) प्रस्तुत प्रकरण में 'विचारसारबृहद्वृत्ति' ग्रन्थ के आधार पर यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि तामलि तापस को अनशन द्वारा अन्तिम समय में साधु के दर्शन से सम्यक्त्व अर्जित हुआ। (३७) इस प्रकरण में भी उपर्युक्त ग्रन्थ का प्रमाण देते हुए यह निर्देश किया गया है कि जीव के बत्तीस भेद होते हैं। (३८) इसमें जिनप्रभसूरि कृत 'ग्रहपूजाविधि' के आधार पर यह विवेचन किया गया है कि रात्रि में लवण और जल का उत्तारण वाम दिशा से दक्षिण दिशा की ओर करना चाहिए। (३९) इस सन्दर्भ में 'बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति' इत्यादि अनेक ग्रन्थों के आधार पर यह स्पष्ट किया गया है कि मुनि को पुस्तकें संग्रह करने का आगमिक निषेध है, परन्तु अपवाद रूप में पाँच प्रकार की पुस्तकें ग्रहण कर सकता है। (४०) इसमें 'उपासकदशांग' के आधार पर वह बताया है कि श्रावक को सामायिक करते समय अंगूठी आदि आभूषण अपने पास में उतारकर रख देना चाहिये।। (४१) प्रस्तुत प्रकरण में लब्धि-अपर्याप्त और करण-अपर्याप्त जीवों का सप्रमाण अन्तर स्पष्ट किया गया है और यह बताया गया है कि लब्धि-अपर्याप्त वे हैं जो अपनी योनि के अनुरूप शरीर- इन्द्रिय आदि की क्षमता को प्राप्त नहीं करते हैं, जबकि करण-अपर्याप्त
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