Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ (७) प्रस्तुत प्रकरण में तालवृन्त आदि के पंखे से प्राप्त हवा को अचित्त स्वीकार किया गया है। (८) इस संदर्भ में यह बताया गया है कि पूर्व में ज्ञाताधर्म कथा' में पुनरुक्त २०० करोड़ कथाएँ और अपुनरुक्त ४६ करोड़, ५० लाख कथाएँ थीं।। (९) इस प्रकरण में हेमाचार्य विरचित 'श्रेणिक-चरितम्' के अनुसार राजा चेटक की सात पुत्रियों का विवाह किन-किन पुरुषों के साथ हुआ था, इसका निर्णय किया गया है। (१०) इसमें हेमाचार्य के 'नेमिचरित्र' का प्रमाण देते हुए यह उल्लिखित किया गया है कि इन्द्र की आज्ञा से जो द्वारिका नगरी बनाई गई थी, वह वस्तुत: नवीन न होकर समुद्र से आवृत्त नगरी को ही उद्घाटित किया गया था। (११) प्रस्तुत अधिकार में उक्त ग्रन्थ के अनुसार यह बताया गया है कि समुद्रविजय के सोलह पुत्र थे। (१२) इस प्रकरण में 'समवायांगसूत्रवृत्ति' के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि जम्बूद्वीप में अधिकाधिक चार तीर्थङ्कर उत्पन्न हो सकते हैं। (१३) 'सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' - इस पाठ में यद्यपि 'सिरसा' एवं 'मत्थएण वंदामि' अव्युत्पन्न शब्द हैं, अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। (१४) प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रवचनसारोद्धार' के अनुसार यह कहा गया है कि रचना की अपेक्षा से पूर्व' पहले और आचारांग आदि अंग-सूत्र बाद के हैं, किन्तु स्थापना की दृष्टि से आचारांग आदि अंग-सूत्रों का स्थान पहले है और 'पूर्व' का बाद में। (१५) इसमें 'आचारांग-सूत्र' के आधार पर यह बताया गया है कि साधु को शीत से पीड़ित देखकर यदि कोई श्रावक अनुकम्पा करके उनके पास अग्नि जलाकर उन्हें उष्णता देता है, तो उसे पुण्यकर्म का बन्धन ही होता है। (१६) प्रस्तुत अधिकार में आचारांगसूत्र' का प्रमाण देते हुए यह बताया है कि स्थविरकल्पी श्रमण वस्त्र धोते हैं। (१७) इसमें विकलेन्द्रिय प्राणियों में रुधिर होने की बात कही गई है। ग्रन्थकार ने 'स्थानांग-सूत्र' का प्रमाण दिया है। (१८) इस प्रकरण में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि से रचित ग्रन्थों का भी अध्ययन यदि सम्यग्दृष्टि से किया जाए, तो उससे अध्येता की कोई हानि नहीं होती। ग्रन्थकार ने १. यद्यपि आचारांग के मूल में पुण्य-बंध का कोई उल्लेख नहीं है, उसमें तो यह बताया
गया है कि श्रावक द्वारा अग्नि आदि प्रज्वलित करने पर साधु कह दे कि यह मेरे लिए
सेवनीय नहीं है। २. यहाँ लेखक ने आचारांग के मूल निषेधवाचक अर्थ को जिनकल्पी के संबंध में घटित
करके अपनी कल्पना से ही स्थविरकल्पी के संबंध में विधिपरक अर्थ लगा दिया है।
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