Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (९४) प्रस्तुत प्रकरण में 'श्रीआचारांग' सूत्र और 'निशीथचूर्णि' के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि कच्ची और शस्त्र से अनुपहत कालीमिर्च, पिप्पली, अदरक आदि ग्राह्य नहीं है। (९५) इस प्रकरण में यह बताया है कि साधुओं द्वारा ग्राह्य एवं अग्राह्य वस्त्रों का उल्लेख 'आचारांगसूत्र' में उपलब्ध है। (९६) प्रस्तुत अधिकार में यह बताया गया है कि कल्पसूत्र' में साधुओं के लिए मद्य, मांस, मक्खन आदि के ग्रहण करने के सन्दर्भ में जो उल्लेख मिलता है, वह आपत्तिकाल के लिए ही है, सामान्य रूप से नहीं। लेखक ने इस बात की पुष्टि के लिए आचारांग आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। (९७) इस प्रकरण में 'स्थानांगसूत्र' के आधार पर यह कहा गया है कि शय्यातर गृह से आहार, उपधि आदि ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु तृणादिक बाह्य वस्तु ग्रहण कर सकते हैं। (९८) इस प्रकरण में 'आचारांगसूत्रवृत्ति' के आधार पर यह बताया गया है कि लोकोपकारक कूप, तालाब आदि को खोदने का साधुजन न किसी को उपदेश दें और न ही उसका निषेध करें। (९९) इस अधिकार में यह लिखा है कि साधु द्वारा प्रासुक ग्रहण करने का उल्लेख 'आचारांग' में है। (१००) प्रस्तुत प्रकरण में लेखक ने 'आचारांग' के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि भिक्षु गच्छ के बाहर मलिन वस्त्र न धोए, किन्तु उसके भीतर प्रासुक उदक आदि से धुला भी सकता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की मूल पाण्डुलिपियाँ श्री कुशलचन्द्रसूरिज्ञान भंडार, रामघाट, वाराणसी; श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर आदि ज्ञान भंडारों में उपलब्ध हैं। मुनि श्री सुखसागरजी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन करके लखमीचंद वेद-मोहता, आगरा द्वारा प्रकाशित करवाया है। १.९ विचार-शतक
'विचार-शतक' में जैनधर्म-दर्शन से संबंधित १०० प्रश्रों या समस्याओं का सम्यक् समाधान जैनागमों एवं परवर्ती आचार्यों के प्रमाणभूत ग्रन्थों के आधार पर किया गया है। प्रत्येक कथन की पुष्टि के लिए अनेक प्रमाण दिये गये हैं। ग्रन्थ में पारिभाषित शब्दावली का बाहुल्य है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में कुल १०० प्रकरण हैं, जिनमें मुख्यत: १०० प्रश्न उपस्थित किये गये हैं; किन्तु किसी-किसी प्रकरण में एक से अधिक प्रश्न भी हैं। ग्रन्थान्त में प्रशस्ति भी है। उसमें प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का रचनाकाल वि० सं० १६७४
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