Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाएँ
७९ युग से परम्परागत भाद्रपद शुक्ल ५ को सम्पन्न होने वाले पर्युषण (संवत्सरी) पर्व को भाद्रपद शुक्ला ४ को मनाया।
उपर्युक्त तीनों कालकाचार्यों में सामान्यतया द्वितीय तथा तृतीय कालक की कथा ही विश्रुत है, परन्तु लेखक ने अपनी कृति में तीनों ही कालक-कथाओं का विवरण दिया है, जो कि इस प्रकार है -
इसी भरतक्षेत्र में धारावास नामक एक नगर था। वहाँ वज्रसिंह नामक राजा राज्य करता था। सुरसुन्दरी उसकी पट्टराज्ञी थी। एक बार उसने शुभस्वप्न सूचित एक पुत्र को जन्म दिया, जो कालककुमार के नाम से विश्रुत हुआ। वह शैशवकाल में ही सभी कलाओं एवं विद्याओं में पारंगत हो गया।
एकदा उस नगर में आचार्य गुणाकरसूरि पधारे। कालक उनका प्रवचन सुनकर संसार से विरक्त हो गया। उसने बड़ी कठिनाई से माता-पिता आदि अभिभावकों से प्रव्रजित होने की स्वीकृति प्राप्त की। कालक और उसकी बहिन सरस्वती ने भी दीक्षा ले ली। मुनि कालक क्रमशः गीतार्थ बने और आचार्य-पद प्राप्त किया।
कालकाचार्य एक बार उज्जयिनी नगरी गये। वहाँ के राजा गर्दभिल्ल ने नगरमध्य से गमन करती हुई दो साध्वियों को देखा। राजा, साध्वी सरस्वती पर मुग्ध हो गया। वह उसे पाना चाहता था। वयस्क साध्वी ने उसका विरोध किया, लेकिन उसने अश्व पर बैठे हुए ही सरस्वती को पकड़ा और महलों में भाग गया।
__ जब कालक के पास यह समाचार पहुंचा, तो वे कतिपय शिष्यों-सहित राजा के पास गये। उन्होंने एवं संघ ने राजा को यह दुष्कर्म न करने के लिए निवेदन किया और उसे समझाया, परन्तु कामुक के लिए उपदेश व्यर्थ होता है। अन्त में कालक ने यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं अपने सामर्थ्य से गर्दभिल्ल को शिक्षा न दूं और बहिन को इससे मुक्त न करा दूं, तो मुझे दुर्गति प्राप्त हो। कालक उन्मत्त होकर पागल-सा प्रलाप करते हुए नगर में फिरने लगे। सूरि को ऐसी अवस्था में देखकर सारी प्रजा और मन्त्री इत्यादि अधिकारीगण राजा के पास गये और कहा कि हे राजन! इस तपस्विनी को छोड़ दीजिये, इससे आपका बड़ा अपयश हो रहा है; किन्तु राजा पर इनकी बात का भी प्रभाव नहीं पड़ा। कालक ने जब यह जाना कि राजा ने सामन्तों की बात भी नहीं मानी, तो उन्होंने खिन्न होकर वहाँ से प्रयाण कर दिया और वे अनवरत चलते हुए शक-कूल में जा पहुँचे। वहाँ जो सामन्त थे, वह 'साहि' या 'साखी' कहलाते थे। जब कालकसूरि साहि के देश में पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि राजकुमार की गेंद एक कूप में गिर गई और उसे निकालने में सभी लड़के असमर्थ हैं । कालक धनुर्विद्या में प्रवीण तो थे ही, उन्होंने गेंद निकाल ली। साहि-पुत्र ने महल में जाकर यह अद्भुत बात बताई, तो साहि ने कालकसूरि को बुलाया।
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