Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर का जीवन-वृत्त शिष्यों को आचारनिष्ठ बनने के लिए प्रेरणा देना, उनका स्वयं का अपने को मुनि कहना' तथा उनके समकालीन कवियों द्वारा भी मुनि या साधु के रूप में उल्लेख किया जाना,२ उनके निकटम शिष्यों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग आदि इस बात को स्पष्ट करते हैं कि वे यति न होकर मुनि थे, साधु थे। पुनः जो क्रियोद्धार और गुरु-धन की बात उनके यति-पक्ष में होने की कही जाती है, उसे एकदम उनके यति होने का सबल प्रमाण नहीं माना जा सकता। कभी-कभी मुनि भी अपनी वृद्धावस्था में क्रियोद्धार करते हुए देखे गये हैं। क्रियोद्धार केवल इसी बात का सूचक है कि साधक अपनी साधना के प्रति सजग है
और अपने पूर्व जीवन में हुई स्खलना के लिए क्रियोद्धार करता है। इसी प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में मुनि-परम्परा में भी गुरु-धन होने की बात पायी जाती है।
समयसुन्दर द्वारा जो शास्त्र एवं पात्र के विक्रय की बात कही गई है, वह अकाल के कारण अपवाद की स्थिति मानी जा सकती है। इसके अतिरिक्त समयसुन्दर ने स्वयं अपने नाम के साथ अथवा अपनी गुरु-परम्परा या शिष्यों के लिए यति शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं किया है। अतः इन सब आधारों पर हम समयसुन्दर को मुनि कह सकते हैं, किन्तु समयसुन्दर की परवर्ती शिष्य-परम्परा यति की थी, यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है। शिष्य-परम्परा की तालिका में जो अन्तिम नाम हैं, वे सब यति के हैं।
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१. समयसुन्दर मुनि हम भणइ...।
-समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, वैराग्य-सज्झाय, पृष्ठ ४४८ २. सुसाधु हंस समयोसुरचन्द.....।
- ऋषभदास, कुमारपाल-रास (सं० १६७०) ३. (क) मुनिसहजविमल-पण्डितमेघविजयशिष्य-पठनार्थम्।
- जयतिहुअण - वृत्ति, प्रशस्ति (३) (ख) मुनिमेघविजयशिष्यो गुरुभक्तो नित्यपार्श्ववर्ती च।
- विशेषशतक, प्रशस्ति (६)
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