Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व गये । देवालय श्मशानवत् शून्यालय बन गये थे । धर्म-प्रवचन आचार्यों के पास ही रह गये थे और प्रतिक्रमण-सूत्र पुस्तकों में ही । कविवर स्पष्ट कहते हैं. पडिकमणउ पोसाल, करण को श्रावक नावइ, देहरा सगला दीठ, गीत गंधर्व न गावइ, शिष्य भणइ नहीं शास्त्र, मुख भूखइ मचकोडइ, गुरुवंदण गइ रीति, छती प्रीत मानस छोड़इ । वखाण खाण माठा पड्या, गच्छ चौरासी एही गति, समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, काइ दीधी तई ए कुमति ॥ १ देव न पूजै देहरे रे, पडिकमण नहीं पोसाल ।
सिथल थया श्रावक सहू रे, जती पड्या जंजाल ॥ २
समयसुन्दर कहते हैं कि जो श्रमणोपासक - श्रावक अपने श्रमणों को पुनः पुनः निमंत्रण देकर आहारचर्या के लिए बुलाते थे और आहार- दान देने के पश्चात् ही स्वयं भोजन ग्रहण करते थे, वे आज दर्शन भी नहीं देते हैं । उनके श्रद्धाभाव समाप्त हो गये हैं । इसलिए सभी सम्प्रदायों के साधुओं की अवस्था भोजन प्राप्त न होने से बड़ी ही दयनीय बन गयी है
और भी कहा है
जतीयां नै देई जीमता रे, ऊभा रहता आडि ।
तउ भाव तिहां रह्या रे, जीमता जडै किमाडि ॥ दान न के दीपता रे, सहु बैठा सत छांडि । भीख न द्यइ को भावसुं रे, द्यै तो दुःख दिखाडि ॥३
घर तेडी घणी वार, भगवान ना पात्रा भरता, भागा ते सहु भाव, निपट थया वहिरण निरता, जिमता जडइ किमाण, कहै सवार छै केई, घइ फेरा दस पाँच, जती निठ लायइ लेई ॥४
कवि ने एक और सत्य प्रकट किया है कि जिन साधुओं को शिष्य बनाने की जितनी भूख थी, उन्होंने इस दुर्भिक्ष में उतना ही अधिक लाभ उठाया था । सद्गृहस्थों की अनिच्छा होते हुए भी अनेक अनाथ बच्चों को प्रव्रजित कर उन्होंने अपनी जमात बढ़ाई थी
१ वही (१५)
२. चम्पक श्रेष्ठि- चौपाई, (६.१२)
३. चम्पक श्रेष्ठि- चौपाई, (६.१० - ११)
४. सत्यासिया - दुष्काल - वर्णन - छत्तीसी (१४)
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