Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
View full book text
________________
४९
समयसुन्दर का जीवन-वृत्त १६.१.२ व्यावहारिक ज्ञान - समयसुन्दर के साहित्य से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें अपेक्षित व्यावहारिक ज्ञान था। उन्होंने भारत के विविध अंचलों में भ्रमण किया था। लोक-दर्शन करने के कारण उनका व्यावहारिक ज्ञान उच्चतर हो गया था। उनके उपदेशपरक साहित्य में उनके व्यावहारिक ज्ञान का सहजतः दर्शन होता है। मुनि होते हुए भी उन्होंने कुछेक ऐसी सूक्ष्म बातों का भी अंकन किया है, जो उनके लोक या व्यवहार-ज्ञान पर अच्छा प्रकाश डालती हैं । उदाहरणार्थ प्रस्तुत है, गर्भवती स्त्री के लक्षणों के प्रति कवि का
कथन -
गर्भलिंग परगट थया, पांडु गाल प्रकार। थण मुखि श्याम पणो थयो, गुरु नितंब गति मंद।
नयन सनेहाला थया, मुखि अमृत रस बिंद॥१ कवि ने एक व्यावहारिक आदर्श प्रस्तुत किया है -
संगत तेसुं कीजिये, जल सरिखा हुआ जेह;
आवटणुं आपणि सहै, दूध न दाझण देय ॥२ इस प्रकार हम पाते हैं कि समयसुन्दर के ज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था। उनके साहित्य में शास्त्रीय और व्यावहारिक – इन दोनों प्रकार के ज्ञान की स्थिति से धार्मिकता और भौतिकता का सम्मिश्रण एकनिष्ठ-सा प्रतीत होता है। उनकी आस्थाओं, आदर्शों तथा विचारों को हम आगामी अध्यायों में विश्लेषित करेंगे। १६.२ भक्ति-प्रवणता – ज्ञान, भक्ति और कर्म - ये तीन साधना के मुख्य मार्ग हैं। समयसुन्दर केवल ज्ञानी ही नहीं थे, अपितु भक्त एवं कर्मशील भी थे। ज्ञान और भक्ति में अविनाभावी सम्बन्ध है। इसीलिए जैनधर्म ज्ञान-प्रधान होते हुए भी भक्ति की उपेक्षा नहीं करता है। जैन धर्म में ज्ञान के साथ श्रद्धान् होना नितान्त अनिवार्य है और आदर्श पुरुषों के प्रति होने वाली श्रद्धा ही भक्ति है। हेमचन्द्राचार्य ने भी भक्ति को श्रद्धा ही कहा है। इसीलिए सम्भवतः कोई जैनाचार्य ऐसा नहीं, जिसने भगवान के चरणों में भक्ति से ओतप्रोत स्तुति-स्तोत्रों के सुमन न चढ़ाये हों।
समयसुन्दर का हृदय श्रद्धा और भक्ति से अभिभूत था। सभी आदर्शों और आदर्श पुरुषों के प्रति उनकी परम श्रद्धा और भक्ति-भावना थी। वे ज्ञानी तो थे ही, साथ ही भक्ति-भावना का समावेश हो जाने से उनके अन्तर्व्यक्तित्व का सौन्दर्य और भी निखर उठा। अपनी इस भक्ति की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने विविध तीर्थ-यात्राएँ की। जिन तीर्थों में वे गए, वहाँ के तीर्थनायक के चरणों में उन्होंने उन्मुक्त भावपूर्ण स्तवनों के पुष्प भी अर्पित किये। १. सीताराम-चौपाई (८, ३.१-२) २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री नेमिजिनस्तवनम्, पृष्ठ ११४-१५ ३. आचार्य हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण (२.१५९)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org