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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ___ कथा और उपकथाओं के अनेक पात्रों का चरित्र-चित्रण इसमें हुआ है पर प्रकृति-चित्रण और कलात्मक सौन्दर्य-चित्रण कम ही हुआ है। इस काव्य में धर्मोपदेश को अधिक स्थान दिया गया है।
इसकी भाषा सरल तथा वैदर्भी रीति से युक्त है। इसमें पग-पग पर अनुप्रासमण्डित पदविन्यास उपलब्ध होता है । मुहावरों, लोकोक्तियों और सूक्तियों का इस चरित की भाषा में अभाव है। इसमें देशी भाषा के शब्द भी प्रयुक्त नहीं हुए तथा समस्त पदावली का प्रयोग भी कम ही हुआ है। सादृश्यमूलक अलंकारों में उत्प्रेक्षा और रूपक का प्रयोग इस चरित में अधिक हुआ है।
इसकी रचना अनुष्टुभ् वृत्त में हुई है पर सर्गान्त में अन्य छन्दों का प्रयोग हुआ है । कवि ने इस चरित का परिमाण ६१४१ श्लोक प्रमाण बतलाया है।
कविपरिचय और रचनाकाल-इस काव्य के अन्त में एक प्रशस्ति दी गई है जिसमें कवि की गुरु-परम्परा दी गई है। तदनुसार सर्वानन्दसूरि सुधर्मागच्छीय थे। सुधर्मागच्छ में जयसिंह नाम के एक प्रसिद्ध विद्वान् हुए जिनकी पट्ट-परम्परा में क्रमशः चन्द्रप्रभसूरि, धर्मघोषसूरि और शीलभद्रसूरि हुए। शीलभद्रसूरि के शिष्य गुणरत्नसूरि हुए जो प्रस्तुत कवि के गुरु थे। सर्वानन्दसूरि ने इस काव्य की रचना वि० सं० १३०२ में की थी । इनकी अन्य कृति पार्श्वनाथचरित ( सं० १२९१) उपलब्ध है।
पंचम कृति भट्टारक शुभचन्द्रकृत १२ सर्गात्मक चन्द्रप्रभचरित उपलब्ध है। अन्य कवियों द्वारा लिखित उक्त काव्य के उल्लेख मिलते हैं जिनमें पण्डिताचार्य (अज्ञात समय ), आंचलिकगच्छ के एक सूरि, पं० शिवाभिराम (१७ वीं शती ) तथा धर्मचन्द्र के शिष्य दामोदर (सं० १७२७) के नाम ज्ञात हुए हैं।' दामोदर की कृति जयपुर के पटोदो मन्दिर में है।
नवे तीर्थकर पुष्पदन्त के सम्बन्ध में संस्कृत में कोई एक रचना शात है। दसवें शीतलनाथ पर एक कृति का उल्लेख मिलता है।'
१. प्रशस्ति, श्लो० ७-श्री सर्वानन्दसूरि जगगनशमीगर्भशुभ्रांशुवर्षे (१३०२). २. राजस्थान के सन्त : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० १००; जिनरत्नकोश,
पृ० ११९. ३. जिनरत्नकोश, पृ० ११९. ४. वही, पृ० ३८१.
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