________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास तथ्य को बतलाने के लिए जिनदत्त के चरित्र को लेकर कई कथाग्रन्थ संस्कृतप्राकृत में लिखे गये हैं।
जिनदत्त ने अपने पूर्वभव में मात्र पूर्णिमा के दिन एक मुनिराज को परिचर्यापूर्वक आहारदान दिया। उसके प्रभाव से वह अपने इस भव में छूतव्यसन से धन-सम्पत्ति खोकर भी नाना प्रकार के चमत्कारी एवं साहसिक कार्य कर सका। उसने वेष परिवर्तन किया, समुद्र-यात्रा की, हाथी को वश में किया, राजकन्याओं से विवाह किया और नाना सुख भोगकर अन्त में तपस्याकर स्वर्ग प्राप्त किया।
इस कथानक को लेकर सबसे प्राचीन प्राकृत गद्य में अज्ञातकर्तृक कृति' मिलती है जिसकी हस्तलिखित प्रति मणिभद्रयति ने वरनाग के लिए सं० ११८६ में तैयार की थी। इसमें जिनदत्त का पूर्वभव प्रारम्भ में न देकर अन्त में दिया गया है।
द्वितीय रचना प्राकृत गद्य-पद्य में ७५० ग्रन्थान-प्रमाण है। इसकी रचना पाडिच्छयगच्छ के नेमिचन्द्र के प्रशिष्य एवं सर्वदेवसूरि के शिष्य सुमतिगणि ने की है। ग्रन्थ का रचनाकाल निश्चित नहीं है, तथापि एक प्राचीन प्रति में उसके अणहिलपाटन में सं० १२४६ में लिखाये जाने का उल्लेख है अतः ग्रन्थ की रचना इससे पूर्व होना निश्चित है। इसमें वणिक पुत्रों और सांयात्रिकों की यात्रा का रोचक वर्णन है।
इस कथानक सम्बन्धी तृतीय रचना संस्कृत में है।" इसमें ९ सर्ग हैं तथा ९३८ पद्य हैं। इसे जिनदत्तकथासमुच्चय भी कहते हैं। सर्गान्त के एक-एक दो-दो वृत्त छन्दों को छोड़कर शेष सारा ग्रन्थ अनुष्टुप में है। इसकी रचना
१. जिनरत्नकोश, पृ० १३५. २. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २७, बम्बई, सं० २००९. ३. वही, दोनों रचनाएं एक ही ग्रन्थ में प्रकाशित हैं। ४. विशेष परिचय के लिए, डा. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इति
हास, पृ० ४७६; डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, प्राकृत भाषा और साहित्य का
आलोचनात्मक इतिहास, पृ० ५०५.५०८. ५. माणिकचन्द्र दिग. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, सं० १९७३; इसका हिन्दी
अनुवाद पं० श्रीलाल काव्यतीर्थ, कलकत्ता से प्रकाशित.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org