________________
ललित वाहाय
५२५
समय के साहित्य में 'राघवपाण्डवीय' शीर्षक बड़ा प्रिय था। कवि धनंजय की कृति के अतिरिक्त कविराज और श्रुतकीर्ति आदि कवियों ने इस नामवाली कृतियाँ लिखी हैं और इस प्रकार के नामवाली--राघवयादवीय, राघव. पाण्डव-यादवीय आदि कृतियाँ भी हैं। जो हो, धनंजय की अपनी कृति का प्रधान नाम 'द्विसंधान' है और महाकवि दण्डी के बाद वह इस प्रकार के लेखकों में अग्रणी था। 'राघव-पाण्डवीय' केवल गौण नाम प्रतीत होता है।
कथावस्तु-काव्य के आरंभ में मंगल पद्य में मुनिसुव्रत अथवा नेमि (श्लेष द्वारा) तथा सरस्वती को नमस्कार किया गया है। फिर श्लेषालंकार की सहायता से राम और पाण्डवों की कथा का वर्णन किया गया है। प्रथम सर्ग में अयोध्या और हस्तिनापुर का वर्णन है। दूसरे सर्ग में दशरथ और पाण्डुराज का. तोसरे में राघवकौरवोत्पत्ति, चतुर्थ में राघव-पाण्डवारण्यगमन, पांचवें में तुमुल युद्ध, छठे में खरदूषण-वध और गोग्रहनिवर्तन, सातवें में सीता-हरण, अष्टम में लङ्का-द्वारावतीप्रस्थान, नवम में माया-सुग्रीव-विग्रह तथा जरासंधबलविद्रावण, दसवें में लक्ष्मण-सुग्रीव-विवाद तथा जरासंघदूत एवं नारायण के बीच विवाद, ग्यारहवें में सुग्रीव-जाम्ब-हनुमान के बीच परामर्श एवं नारायणपाण्डवादि परामर्श, बारहवें में लक्ष्मण द्वारा तथा वासुदेव द्वारा कोटिशिला का उद्धरण, तेरह में हनुमन्नारायणदूताभिगमन, चौदहवें में सैन्यप्रयाण, पन्द्रहवें में कुसुमावचय एवं जलक्रीड़ा-वर्णन, सोलहवे में संग्राम-वर्णन, सत्रहवें में रात्रिसंभोगवर्णन और अठारहवें में रावण एवं जरासंध का वध तथा यादव-पाण्डवों की निष्कण्टक राज्यप्राप्ति का वर्णन किया गया है।
कवि ने इस कथा को गणधर गोतम के द्वारा श्रेणिक के लिए कही गई बताया है, जैसा कि प्रायः सभी दिगम्बर जैन कवि अपनी कथावस्तुओं के प्रति कहते हैं । कवि ने घटनाओं के कथनों की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण वर्णनों पर ही अधिक बल दिया है। अन्य जैन काव्यों की अपेक्षा इस काव्य में कुछ विशेषताएँ ये हैं कि इसके किसी भी सर्ग में जैन सिद्धान्त या नियमों का विवेचन नहीं है जबकि अन्य काव्यों के किसी एक सर्ग में ऐसा रहता है। सभी बैन काव्य प्रायः मुख्य नायक के निर्वाणगमन पर समाप्त होते हैं परन्तु यह काव्य निर्विघ्न राज्यप्राप्ति पर ही समाप्त हो जाता है।
इस काव्य की भाषा क्लिष्ट संस्कृत है जिसे समझने के लिए श्रम की आवश्यकता है। इस काव्य के अधिकांश पद्य विविध अलंकारों से सजाये गये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org