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ललित वाङ्मय
गायब हो गया । कुछ काल बाद एक शुक ने हरिवाहन का समाचार एक दूत को दिया जिसे सुनकर समरकेतु उसकी खोज में निकल पड़ा और धीरे-धीरे वैताब्य पर्वत के अदृष्टपार नामक सरोवर के पास पहुँच गया ।
वहां विश्राम करते हुए उसने एक अति मधुर स्वर सुना और उसका अनुसरण करके उसने एक सुन्दर मठ में गन्धर्वक को देखा और कदलीवन में कुमार हरिवाहन को देखा, दोनों मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। हरिवाहन ने समरकेतु से तिलकमंजरी के दर्शन की बात कही और साथ ही पास में एक वन में एक तापस कन्या को भी देखने की बात कही जा अन्य कोई नहीं बल्कि समरकेतु की प्रेमिका मलयसुन्दरी थी और जो उसके विरह में वहाँ तपस्या कर रही थी । हरिवाहन उसका अतिथि बन कर रहने लगा। वहीं तिलकमंजरी का हरिवाहन के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा और दोनों पत्रादिप्रेषण द्वारा व्याकुल होने लगे। इसी बीच वे लोग एक महर्षि द्वारा चारों के पूर्वजन्म के वृत्तान्त को जान सके। ___ अन्त में हरिवाहन का विवाह तिलकमंजरी से और समरकेतु का मलयसुन्दरी से हो जाता है और आख्यायिका भी समाप्त होती है।
बाणकृत कादम्बरी और तिलकमंजरी की कथावस्तु में बहुत समानता है। जिस तरह कादम्बरी काव्य किन्हीं उपविभागों में विभक्त नहीं है उसी तरह तिलकमंजरी भी विभक्त नहीं है। दोनों कथाओं का प्रारम्भ पद्यों से होता है जिनमें दोनों कवियों ने कथा, गद्य एवं चम्पू के विषय में अपने विचार प्रकट किये हैं । दोनों कथाओं में गद्य के बीच में यत्र-तत्र पद्यों का प्रयोग हुआ है। जिस तरह कादम्बरी की नायिका गन्धर्वकुलोत्पन्न कादम्बरी विवाह के पहले परकीया एवं मुग्धा तथा विवाह के बाद स्वकीया एवं मध्या है उसी प्रकार तिलकमंजरी की नायिका विद्याधरी तिलकमंजरी पहले परकीया एवं मुग्धा तथा पश्चात् स्वकीया एवं मध्या है। इसका प्रधान नायक हरिवाहन और सहनायक समरकेतु आपस में कादम्बरी के चन्द्रापीड और वैशम्पायन की ही भांति परम मित्र हैं तथा अनुकूल एवं धीरोदात्त हैं। नायक की नायिका से भेंट भी कादम्बरी के समान ही है। इन दोनों में प्रथम उपनायिका और तदनन्तर नायिका आती है। उपनायिका मलयवती और उसके तप की विधि का वर्णन महाश्वेता की ही भांति है। दोनों गधों के कथानक के अन्य अंशों में भी समानता दिखाई पड़ती है, यथा कादम्बरी में उजयिनी का नृप तारापीड और रानी विलासवती निःसन्तान होने के कारण दुःखी हैं। तिलकमंजरी में
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