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ललित वाङ्मय
का उल्लेख किया है। प्रबंधकोश में कहा गया है कि बप्पभट्टि के गुरुभाई नन्नसूर ने वृषभध्वजचरित नाटक आम राजा ( कन्नौजनरेश) के राजदरबार में अभिनीत किया था । प्राचीन जैन नाटक कृतियों में शीलांकाचार्य के चउप्पण्णपुरिसचरिय में विबुधानन्द नाटक दिया गया है । वर्धमानसूरि के मनोरमाचरित्र की प्रशस्ति ( वि० सं० ११४० ) में उल्लेख है कि बुद्धिसागरसूरि ने कोई नाटक लिखा था ।
यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध जैन-अजैन संस्कृत प्राकृत नाटक कृतियाँ सैकड़ों हैं परन्तु उनमें उत्कृष्टतम तो २० से कदाचित् अधिक होंगी । प्राचीन कवियों भास, कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त, भवभूति और हर्ष की रचनाएँ उन उच्चकोटि की कृतियों में से हैं। उत्तरकालीन नाटक कृतियाँ केवल अनुकरण जैसी ही हैं।
मध्ययुग के प्रारंभ काल तक संस्कृत नाटक के इतिहास का युग समाप्त हो चुका था फिर भी विद्या और अध्ययन की परम्परा बड़ी लगन के साथ सुरक्षित रखी गई और नाटक की कला और अभिनय का पोषण राजदरबारों और समाज के सुसम्पन्न वर्ग के आश्रय में होता ही रहा ।
मध्ययुग के उत्तरकाल में जैन कवि दृश्यकाव्य के क्षेत्र में आगे बढ़े । चौलुक्य युग के गुजरात में जैनों द्वारा न केवल नाटक रचे और खेले गये थे बल्कि नाट्यशास्त्र पर भी ग्रन्थ लिखे गये थे । हेमचन्द्र के काव्यानुशासन का ८ वाँ अध्याय और उनके शिष्य रामचन्द्र, जो स्वयं १०-११ नाटकों के लेखक थे, का नाट्यदर्पण उस काल की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं । यह परम्परा उत्तरकालीन चौलुक्य युग में भी चलती रही ।
'उपलब्ध जैन नाटकों को कथावस्तु के आधार पर हम विभागों में बाँट सकते हैं : पौराणिक, ऐतिहासिक, रूपक ( allegorical ), काल्पनिक एवं साम्प्रदायिक | पौराणिक यथा रामचन्द्रकविकृत नलविलास, रघुविलास आदि, हस्तिमल्लकृत मैथिलीकल्याण, विक्रांतकौरव आदि; ऐतिहासिक यथा देवचन्द्रकृत चन्द्रलेखविजय प्रकरण, जयसिंहसूरिकृत हम्मीरमदमर्दन एवं नयचन्द्रकृत रंभामंजरी; रूपकात्मक यथा मोहराजपराजय, ज्ञानसूर्योदय आदि; काल्पनिक यथा रामचन्द्रकृत मल्लिकामकरन्द, कौमुदीमित्रानन्द आदि; साम्प्रदायिक यथा मुद्रितकुमुदचन्द्र ।
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