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ललित वाङ्मय
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सुभाषितों में भर्तृहरि के शतकत्रय पर धनदराज (वि० सं० १४९०), धनसारसूरि एवं अभयकुशल (वि०सं० १७५५) तथा रामविजयोपाध्याय (वि०सं० १७८८) कृत टीकाएं मिलती हैं। उनके केवल वैराग्यशतक पर गुणविनयोपाध्याय (वि०सं० १६४७ ), सहजकीर्ति ( १७वीं शती ), जिनसमुद्र (वि०सं० १७४० ) एवं ज्ञानसागर ( १८वीं शती) कृत टोकाएं लिखी गई हैं। उनके केवल शृंगारशतक पर जिनवल्लभसूरि ( १२वीं शती) कृत टीका मिलती है। १८वीं शती के रामविजय (रूपचन्द्र ) ने भर्तृहरिशतक एवं अमरुशतक पर टबार्थ लिखे हैं ।
जैनेतर नाटकों में कवि मुरारि के अनर्धराघव पर तपागच्छीय जिनहर्षगणिकृत वृत्ति, नरचन्द्रसूरि ( १३वीं शती) कृत टिप्पण और देवप्रभसूरिकृत रहस्यादर्श टोका मिलती है। इसी तरह श्रीकृष्ण मिश्र के प्रबोधचन्द्रोदय' नाटक पर रत्नशेखरसूरि, जिनहर्ष तथा कामदासकृत वृत्तियां मिलती हैं । प्राकृत के प्रसिद्ध सट्टक' कर्पूरमञ्जरी पर भी प्रेमराजकृत लघुटीका एवं धर्मचन्द्र (१६वीं शती) कृत टीका मिलती है।
प्राचीन जैन ग्रन्थभण्डारों की समय-समय पर प्रकाशित होनेवाली सूचियों में हमें ऐसे अन्य काव्यग्रन्थों पर टीकाएं लिखे जाने की सूचनाएं मिलती हैं जिन सबका संकलन यहां सम्भव नहीं है । ये सब टीकाएं जैन मनीषियों की साम्प्रदायिक भावना-रहित साहित्यिक सेवा को बतलाती हैं।
१. वही, पृ० ३७०. २. वही, पृ० ३६६; मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, खण्ड
२, पृ० २५. ३. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, द्वितीय खण्ड, पृ० २१. ४. जिनररनकोश, पृ० ७. ५ वही, पृ० २६५; जैन सिद्धान्त भा कर, भाग १, किरण .. ६. जिनरस्नकोश, पृ० ६८. ७. साम्प्रदायिकता की भावना से ऊपर उठकर साहित्य-सेवा के उदाहरण और
भी मिलते हैं। इसके लिए देखें-श्री अगरचन्द नाहटा के लेख : दिगम्बर ग्रन्थों पर श्वेताम्बर विद्वानों की टीकाएं एवं अनुवाद ( वीरवाणी, '.२३) तथा जैन ग्रन्थों पर जैनेतर टीकाएं (भारतीय विद्या, २. ३-४ ).
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