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ललित वाङ्मय
५६५ है, उसके रागादि शान्त होते हैं आदि । आचार्य समन्तभद्र स्तुति को प्रशस्तपरिणाम-उत्पादिका बतलाते हैं। जैनधर्म के अनुसार आराध्य तो वीतरागी होता है, वह न तो कुछ लेता है और न देता है पर भक्त को उसके सान्निध्य से एक ऐसी प्रेरक शक्ति मिलती है जिससे वह सब कुछ पा लेता है। ___ जैनधर्म के प्राचीनतम स्तोत्र प्राकृत भाषा में मिलते हैं। उनमें कुन्दकुन्दाचार्यकृत' 'तित्थयरसुद्धि' तथा 'सिद्धभक्ति' आदि प्राचीन हैं। भद्रबाहु के नाम से रचित कहा जाने वाला 'उवसग्गहरस्तोत्र' भी प्राचीन है जो ५ प्राकृत गाथाओं में है । यह इतना प्रभावक स्तोत्र समझा गया कि इसके ऊपर एक अच्छा परिकर साहित्य तैयार हो गया है । इस पर अब तक ९ टीकाएं लिखी गई हैं। प्राकृत के अन्य उल्लेखनीय स्तोत्रों में नन्दिषेण का अजियसंतिथय, धनपालकृत ऋषभपंचाशिका और वीरथुइ', देवेन्द्रसूरिकृत अनेक स्तोत्र यथा चत्तारिअहदसथव, सम्यक्त्वस्वरूपस्तव, गणधरस्तव, चतुर्विंशतिजिनस्तव, जिनराजस्तव, तीर्थमालास्तव, नेमिचरित्रस्तव, परमेष्ठिस्तव, पुण्डरीकस्तव, वीरचरित्रस्तव, शाश्वतचैत्यस्तव, सप्ततिशतजिनस्तोत्र और सिद्धचक्रस्तव, धर्मघोषसूरि का इसिमण्डलथोत्त, नन्नसूरि का सत्तरिसयथोत्त, महावीरथव, पूर्णकलशगणि का स्तम्भनपाश्वजिनस्तव, जिनचन्द्रसूरि का नमुक्कारफलपगरण
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१. स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा।
भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः ॥-स्वयंभूस्तोत्र, २१... २. सुहृत्त्वयि श्रीसुभगवमश्नुते द्विषंस्त्वयि प्रत्ययवत् प्रलीयते । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥
-वही १५.१४. ३. जिनरत्नकोश, पृ० १६८, प्रभाचन्द्राचार्यकृत संस्कृत टीकासहित, दशभक्ति,
सोलापुर, १९२१. ४. जिनरत्नकोश, पृ० ५४, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, १९३३॥
जैनस्तोत्रसंदोह, द्वितीय भाग, पृ० १-१३, अहमदाबाद. ५. जिनरत्नकोश, पृ० ३, यहाँ इस स्तोत्र की ६ टीकाओं का उल्लेख है। ६. वही, पृ. ५८, यहाँ इसके कई संस्करणों तथा • टीकामों का उल्लेख है। .. वही, पृ० ३६३, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई,
१९३३. ८. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई.
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