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जेन साहित्य का बृहद् इतिहास वर्णनमिलता है । आचार्य आर्यनन्दि का जीवंधर को शिक्षान्त उपदेश कादम्बरी में शुकनास द्वारा चन्द्रापीड को दिये उपदेश की याद दिलाता है।
रचयिता और रचनाकाल-इसके रचयिता और क्षत्रचूडामणि के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं-आचार्य वादीभसिंह अपरनाम ओडयदेव । इनका परिचय उक्त काव्य के प्रसंग में दिया गया है।
अन्य गद्यकाव्यों में सिद्धसेनगणिकृत बंधुमती नामक आख्यायिका का भी उल्लेख मिलता है पर वह अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। चम्पूकाव्य :
मध्यकालीन भारतीय जनरुचि ने गद्य-पद्य की मिश्रण शैली में एक ऐसी साहित्यविधा को जन्म दिया जिसे चम्पू कहते हैं। वैसे पश्चात्कालीन संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने इस विधा को स्वीकार कर 'गद्य-पद्यमयी वाणी चम्पू' इस प्रकार लक्षण किया है पर यथार्थ में चम्पू शब्द संस्कृत का न होकर द्रविड माषा' का है । धारवाड़ निवासी कवि द० रा. वेन्द्र का मत है कि कन्नड और तुलु भाषाओं में मूल शब्द केन-चेन केंपु और चेम्पु के रूप में निष्पन्न होकर सुन्दर और मनोहर अर्थ का बोध कराते हैं। गद्य-पद्यमिश्रित काव्य विशेष को जनता ने सर्वप्रथम सुन्दर एवं मनोहर अर्थ में चेम्पु के नाम से पुकारा होगा
और वही बाद में रूढ़िवल से चेम्पु या चम्पु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उक्त कवि का यह भी मत है कि चम्पू का सीधा सम्बन्ध जैन तीर्थंकरों के पंचकल्याणों से है और पंच-पंच शब्द ही गम्-गम् गम्पू की तरह चम्पू बन गया। संस्कृत साहित्यक्षेत्र के लिए यह जैनों की अनुपम देन है। कन्नड में चम्पूकाव्य के रचयिता प्रसिद्ध जैन कवि पम्प, पोन और रन्न हैं जो संस्कृत में उपलब्ध चम्पुओं से पहले रचे गये थे। कन्नड में इस साहित्य की सष्टि अवश्य ही ८-९वीं शताब्दी में हो गई थी।
१०वीं शताब्दी में राष्ट्रकूट नरेशों के राज्यकाल में संस्कृत के प्रथम चम्पुओं की-पहले त्रिविक्रमभट्टकृत नलचम्पू (सन् ९१५) और बाद में सोमदेवकृत जैन चम्पू 'यशस्तिलक' (सन् ९५९ ई०) की-रचना हुई थी।
जैन चम्पूकाव्यों में अब तक ३-४ कृतियाँ ही उपलब्ध हो सकी हैं। उनका क्रमशः संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: १. मरुधरकेशरी मभिनन्दन ग्रन्थ, जोधपुर, वि० सं० २०२५, पृ. २७९-८१
में पं. के. भुजबली शास्त्री का लेख.
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