________________
५४६
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के प्रतिपादन में, इस प्रकार की सर्वप्रथम रचना जिनसेन का पाश्र्वाभ्युदय है; दूसरा दूतकाव्यों द्वारा धार्मिक नियमों और तात्त्विक सिद्धान्तों के उपदेश में; तीसरा काव्यात्मक पत्ररचना के रूप में, इन पत्रों को विज्ञप्तिपत्र कहते हैं। ये विज्ञप्तिपत्र पर्दूषण पर्व के समय श्वेताम्बर जैन साधुओं द्वारा अपने गुरुओं को लिखे पत्र हैं जो दूतकाव्य के ढंग से लिखे गये हैं। इस प्रकार के काव्य १७वी और बाद की सदियों में विशेष रूप से लिखे गये हैं।
दूतकाव्य में जो ये नूतन संस्कार किये गये हैं उनसे प्रकट होता है कि जैनों में दूतकाव्य बहुत प्रिय था। लोकमानस को पहचानने वाले जैन कवियों ने इसीलिए अपने नीरस धर्मसिद्धान्तों और नियमों का प्रचार करने के लिए इस विधा का आश्रय लिया है । इस कार्य में भी उन्होंने साहित्यिक सौन्दर्य और सर. सता की क्षति नहीं होने दी।
जैनों के सभी दूतकाव्य संस्कृत में मिले हैं, प्राकृत में एक भी नहीं। प्रधान दूतकाव्यों में पार्श्वनाथ और नेमिनाथ जैसे महापुरुषों के जीवनवृत्त अंकित हैं । कुछ जैन कवियों ने मेघदूत के छन्दों के अन्तिम या प्रथम पाद को लेकर समस्यापूर्ति की है । इस प्रकार का प्राचीन दूतकाव्य जिनसेनकृत पाश्र्वाभ्युदय (सन् ७८३ ई० से पूर्व ) है। पीछे १३वीं सदी से अब तक जैन कवियों ने इस दूत परम्परा का पर्याप्त विकास एवं पल्लवन किया है । इनमें उल्लेखनीय रचनाएं हैं : विक्रम का नेमिदूत ( ई० १३वीं शती का अन्तिम चरण ), मेरुतुंग का जैनमेघदत (१३४६-१४१४ ई०). चारित्रसुन्दरगणि का शीलदूत (१५वीं शती), वादिचन्द्र का पवनदूत (१७वीं शती), विनयविजयगणि का इन्दुदत (१८वीं शती), मेघविजय का मेघदूतसमस्यालेख (१८वीं शती), अज्ञातकर्तृक चेतोदूत एवं विमलकीर्तिगणि का चन्द्रदूत ।
जैन दूतकाव्यों का संक्षेप में परिचय प्रस्तुत है : पाश्र्वाभ्युदय:
इस काव्य में ४ सर्ग हैं। प्रथम में ११८ पद्य, द्वितीय में ११८. तृतीय में ५७ और चतुर्थ में ७१ इस प्रकार ४ सर्गों में ३६४ पद्य हैं। इसका प्रत्येक पद्य मेघदूत के क्रम से पद्य के एक चरण या दो चरणों को समस्या के रूप में लेकर १. निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९०९, टीकासहित; बालबोधिनी टीका एवं
अंग्रेजी अनुवादसहित, संपा०-मो० गो० कोठारी, प्रकाशक-गुलाबचन्द्र हीराचन्द्र कंस्ट्रक्शन हाउस, बेलार्ड इस्टेट, बम्बई, १९६५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org