________________
५५८
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भुवि धृतसुरपतिलीलापात्र वरिष्ठ भवसि महाबल पुण्यगरिष्ठ । भूमिप तव धर्मफलेन जय धरणीशपते खेचरभूप जय धरणीशपते । -१.८. सुरगिरिनन्दनप्रभृतिमनोहरविलसदुद्यानसंघाते सुरपरिवृतललिताङ्गसुरो दिविजोत्तमविहरणपूते । व्यहरदति सुरभिभरित वसन्ते नर्तनसक्तजनेन समं निजविरहिसुरस्य दुरन्ते । -३.८. मंजुलचम्पककुसुमसमायतरजितनासासारं पुजितनायकमणिगणराजितसिजितवक्षोहारम् दधे वृषभजिनो ललितामलधृणिभरितमनुपमशरीरम् ।-१९.४.
रचयिता एवं रचनाकाल-इस काव्य के अन्त में २५वें प्रबंध में दी गई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता श्रवणबेलगोल जैनमठ के भट्टारक अभिनव चारुकोति पण्डिताचार्य हैं। इनका जन्म सिंहपुर में हुआ था। भट्टारक पद पाने के पूर्व इनका क्या नाम था यह हमें मालूम नहीं । भट्टारक पद पाने के बाद इनका नाम चारुकीर्ति पड़ा, वैसे श्रवणबेलगोल के मठाधीशों का सामान्य नाम चारुकीर्ति ही है । इस काव्य की रचना गंगवंशी राजपुत्र देवराज के अनुरोध पर श्रवणबेलगोल के बाहुबलि की प्रतिमा के समीप की गई थी।
__श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० २५४ (१०५) जो कि सन् १३९८ ई. का है और नं० २५८ (१०८) जो सन् १४३२ ई० का है, से अभिनव पण्डिताचार्य के विषय में हमें कुछ ज्ञात होता है। सन् १३९८ में उक्त आचार्य ने अपने परलोकगत गुरु की स्मृति में एक लेख स्थापित किया था और सन् १४३२ में उन्होंने सल्लेखना धारण की थी और लेख में उनके शिष्य श्रुतसागर ने पण्डितेन्द्र योगिराट नाम से उनका उल्लेख किया है।'
१. उक्त काव्य की अंग्रेजी प्रस्तावना, पृ० १६-२०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org