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ललित वाङ्मय
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आधार बनाकर उनके जगत् विस्मयकारी शील का वर्णन किया गया है। काशा स्थूलभद्र को नानाभाँति से शील से च्युत करने का प्रयत्न करती है पर इसके बाद स्थूलभद्र के अनुपम उपदेशों से स्वयं शीलव्रत धारण कर लेती है ।
शील जैसे भावात्मक तत्त्व को दूत का रूप देकर कवि ने अपनी मौलिक कल्पनाशक्ति का अच्छा परिचय दिया है । इसमें दीर्घसमास प्रायः नहीं हैं । अलंकारों में उत्प्रेक्षा की योजना दर्शनीय है । मेघदूत की शृंगारपरक पंक्तियों को शान्तरसपरक बनाने में कवि ने अद्भुत प्रतिभा दिखायी है ।
रचयिता एवं रचनाकाल – इसकी रचना बृहद् तपागच्छ के आचार्य चारित्रसुन्दरगणि ने सं० १४८४ में खम्भात में की थी । चारित्र सुन्दरगणि ने अन्य ग्रन्थों में कुमारपालचरित, महीपालचरित एवं आचारोपदेश ग्रन्थ लिखे थे । इनका परिचय उनके अन्य काव्यों के प्रसंग में दिया गया है ।
पवनदूत :
यह मेघदूत की समस्यापूर्ति न होकर एक स्वतंत्र कृति है पर इसे हम मेघदूत की छाया कह सकते हैं। इसमें १०१ मन्दाक्रान्ता वृत्त हैं ।'
इसमें मेघ के स्थान पर पवन को दूत बनाया गया है। इसकी कथावस्तु छोटी : उज्जयिनी के एक नृप विजय की रानी तारा को अशनिवेग नामक विद्याधर हर ले जाता है । राजा अपनी प्रिया के पास पवन को दूत बनाकर अपने विरहसन्देशों के साथ भेजता है । पवन भी साम, दाम, दण्ड और भेद के प्रयोग के साथ अन्त में तारा को लेकर विजय को सौंप देता है ।
पवनदूत एक विरह- काव्य है । इसमें विप्रलम्भ-शृंगार का परिपाक खूब हुआ है । रचना में प्रसादगुण और भाषा में प्रवाह लाने में लेखक सफल रहा है । इसमें लेखक ने नैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक शिक्षा भी दी है ।
रचयिता एवं रचनाकाल - इसके रचयिता भट्टारक वादिचन्द्र ( १७वीं शती ) हैं । इन्होंने पार्श्वपुराण, पाण्डवपुराण, यशोधरचरित आदि अनेकों ग्रन्थ लिखे हैं । इनका परिचय पूर्व में दिया गया है ।
१. हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई से १९१४ में हिन्दी अनुवादसहित प्रकाशित; कान्यमाला, गुच्छक १३, पृ०९-२४.
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