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ललित वाङ्मय
१८वीं शती का तीसरा दूतकाव्य 'इन्दुदूत' है।' इसमें १३१ मन्दाक्रान्ता वृत्त हैं। यह कोई समस्यापूर्तिकाव्य नहीं बल्कि स्वतंत्र रचना है। इसमें जोधपुर में चातुर्मास करनेवाले विनयविजयगणि ने अपने सूरत में चातुर्मास करनेवाले गुरु विजयप्रभसूरि के पास चन्द्रमा को दूत बनाकर सांवत्सरिक क्षमापना सन्देश
और अभिनन्दन भेजे हैं। इसमें जोधपुर से सूरत तक जैन मन्दिरों और तीर्थों का वर्णन भी खूब आया है, यह एक प्रकार का विज्ञप्तिपत्र है। काव्य की भाषा प्रवाहमय और प्रसादपूर्ण है। इसमें कवि की वर्णनशक्ति और उदात्त भावों के दर्शन प्रचुर मात्रा में होते हैं। दूत काव्य परम्परा में इस प्रकार के काव्य का प्रयोग नवीन है।
___ इन्दुदूत की कोटि का दूसरा काव्य 'मयूरदूत है जो वि० सं० १९९३ में रचा गया था। इसमें १८० पद्य हैं जिनमें अधिकांश शिखरिणी छन्द में रचे गये हैं। इसके रचयिता मुनि धुरंधरविजय हैं। इसमें कपडवणज में चातुर्मास करनेवाले विजयामृतसूरि द्वारा जामनगर में अवस्थित अपने गुरु विजयनेमिसूरि के पास वन्दना और क्षमापना सन्देश भेजने को कथावस्तु है । इसमें दूत के रूप में मयूर को चुना गया है। यहाँ मयूर का वर्णन काव्यदृष्टि से बड़े महत्त्व का है, साथ में कपडवणज से लेकर जामनगर तक के स्थानों और तीर्थों का भौगोलिक वर्णन भी दिया गया है।
उक्त दूतकाव्यों के अतिरिक्त कुछ अन्य दूतकाव्यों का भी ग्रन्थभण्डारों की सूचियों से पता लगता है । यथा जम्बूकवि का इन्दुत जो २३ मालिनी छन्दों में है जिसमें अन्त्य यमक को प्रत्येक पद्य में चित्रित किया गया है, विनयप्रभ द्वारा संकलित चन्द्रदूत एवं अज्ञातकर्तृक मनोदूत ।
१. जैन साहित्यवर्धक सभा, शिरपुर (पश्चिम खानदेश), १९१६; काव्य
माला, गुच्छक १४. २. जैन ग्रन्थप्रकाशक सभा, ग्रन्थांक ५४, अहमदाबाद, वि० सं० २०००. ३. Notices of Sanskrit Mss., vol. II, p. 153, जिनरत्नकोश,
पृ०४६४. 8. Third Report of Operations in Search of Sanskrit __Mss., Bombay Circle, p. 292, जिनरत्नकोश, पृ० ४६४. ५. जैन ग्रन्थावली, पृ० ३३२.
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