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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मिलता है पर विद्वज्जन इसे उपयुक्त नाम से कहते हैं। इसमें जीवन्धर के चरित का वर्णन है। यह संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कुछ चम्पूकाव्यों में से एक है तथा जैन साहित्य के नम्पुओं में यशस्तिलकचम्पू के बाद इसी का नाम आता है। यह ११ लम्भों में विभक्त है । इसकी कथा काआधार गद्यचिन्तामणि एवं क्षत्रचूडामणि है जिनमें जीवन्धर की कथा गद्य और पद्य में विस्तार से वर्णित है। इसमें प्रत्येक लम्भ की कथावस्तु तथा पात्रों के नाम आदि उक्त दोनों ग्रन्थों से मिलते-जुलते हैं। इस चम्पू में वह वैशिष्ट्य तो नहीं है जो यशस्तिलकचम्पू में मिलता है परन्तु इसकी रचना सरसता और सरलता की दृष्टि से प्रशंसनीय है । इसमें अलंकारों की योजना विशेषरूप से हृदय को आकृष्ट करती है। पद्यों की अपेक्षा गद्य की रचना अधिक पाण्डित्यपूर्ण है। कितने ही गद्य इतने कौतुकभरे हैं कि उन्हें पढ़कर कवि की प्रतिभा का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। नगरीवर्णन, राजवर्णन, राज्ञोवर्णन, चन्द्रोदय, सूर्योदय, वनक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, युद्ध आदि वर्णनों को कवि ने यथास्थान सजाकर रखा है।
कुछ अलंकारों की छटा यहाँ द्रष्टव्य है :
"यश्च किल संक्रन्दन इवानन्दितसुमनोगणः, अन्तक इव महिषीसमधिष्ठितः, वरुण इवाशान्तरक्षणः, पवन इव पद्मामोदरुचिरः, हर इव महासेनानुयातः,........."भद्रगणोऽप्यनागो, विबुधपतिरपि कुलीनः, सुवर्णधरोऽप्यनादित्यागः, सरसार्थपोषकवचनोऽपि नरसार्थपोषकवचनः । यहाँ क्लिष्ट पूर्णोपमालंकार और विरोधाभासालंकार दर्शनीय है ।
“यस्य प्रतिपक्षलोलाझोणां काननवीथिकादम्बिनीशम्पायमानतनुसम्पदां वदनेषु वारिजभ्रान्त्या पपात हंसमाला, ता कराङ्गुलीभिर्निवारयन्तीना तासा करपल्लवानि चकषुः कीरशावकाः........'ततश्चलित वेणीनामेणाक्षीणा नागभ्रान्त्या कर्षन्तिस्म वेणी मयूराः।"
इस गद्यांश में भ्रांतिमदलंकार है और करुणरस का परिपोष भी दर्शनीय है । इस गद्यांश का पूरा भाग उपलब्ध संस्कृत साहित्य में अनूठा है। १. भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृ० ८. २. वही, पृ० ११.
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