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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर टीका के अन्त में दी हुई पुष्पिका से स्पष्ट है कि कवि उक्त पण्डितराज से 'भिन्न ही है।
१८वीं सदी के महोपाध्याय मेघविजय की रचना 'सप्तसन्धान' (सं० १७६०) भी अनुपम है । यह काव्य ९ सर्गो' में लिखा गया है। प्रत्येक श्लेषमय पद्य से ऋषभ, शान्ति, नेमि, पार्श्व और महावीर इन पाँच तीर्थंकरों एवं राम और कृष्ण इन ७ महापुरुषों के चरित्र का अर्थ निकलता है।
उक्त काव्यों के अतिरिक्त अनेकार्थविषयक कई स्तोत्र भी पाये गये हैं, यथा ज्ञानसागरसूरिरचित नवखण्डपार्श्वस्तव, सोमतिलकसूरिरचित विविधार्थमयसर्वज्ञस्तोत्र, रत्नशेखरसूरिरचित नवग्रहगर्भितपार्श्वस्तवन तथा पाश्वस्तव, मेघविजयरचित पंचतीर्थीस्तुति, समयसुन्दररचित द्वयर्थकर्णपाश्वस्तव आदि ।
यहाँ संधान विषयक दो काव्यों का विशेष परिचय दिया जाता है । द्विसन्धानमहाकाव्य : ___ इस महाकाव्य' में १८ सर्ग हैं। काव्य का यह नाम रचना के साँचे को सूचित करता है जिसका प्रत्येक पद्य दो अर्थ प्रदान करता है। इसका दूसरा नाम राघवपाण्डवीय भी है। यह नाम काव्य की कथावस्तु की सूचना देता है अर्थात् इस काव्य में रामायण और महाभारत की कथा एक साथ बड़ी कुशलता से ग्रथित की गई है। इन दोनों महाकाव्यों से सम्बद्ध कथाचक्र भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का अविभाज्य अंग बन गया है और कोई भी कवि एक काल में एक साथ दोनों की विषयवस्तु को यदि ग्रहण करे तो वह सरलता से ऐसा कर सकता है । विशेषकर इसलिए कि इन कथाओं का वर्णन करने वाले अनेक स्वतन्त्र महाकाव्य उपलब्ध हैं जिनमें किसी एक के चयन और विवेचन के लिए अनेक प्रकार के विचार और सन्दर्भ दिये गये हैं । उस
१. वही, भाग ८, किरण १, पृ. २४ में श्री अगरचन्द नाहटा का लेख. २. काव्यमाला सिरीज, संख्या ४१, बम्बई, १८९५, जिनरत्नकोश, पृ० १८५;
भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी से नेमिचन्द्र की टीका के साथ प्रकाशित, १९७०; इस काव्य के महाकाव्यत्व और अन्य गुणों के लिए देखें-डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० ३६३-३८७.
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