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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
उपलब्ध संधान काव्यों में सबसे प्राचीन और उत्तम धनञ्जय का द्विसन्धान काव्य ( ८वीं शताब्दी ) है । जैन सिद्धान्त भवन, आरा में ११वीं शती के एक पंच संघान' महाकाव्य की कन्नड पाण्डुलिपि उपलब्ध है । इसके रचयिता शान्तिराजकवि हैं । एतद्विषयक ११वीं शताब्दी की एक रचना सूराचार्यकृत नेमिनाथ-चरित' ( नाभेयनेमिद्विसन्धान ) ( सं० १०९० ) है । इसके श्लेषमय पद्यों से नेमिनाथ के साथ ऋषभदेव के जीवनचरित का अर्थ भी घटित होता है । इस प्रकार की एक दूसरी रचना नाभेयनेमिद्विसन्धान ( १२वीं शती) है | इस काव्य में भी नेमि और ऋषभ की कथाएँ समानान्तर रूप से वर्णित हैं । कहा जाता है कि इसका संशोधन कविचक्रवर्ती श्रीपाल ने किया है । इस काव्य की पाण्डुलिपियाँ बड़ौदा और पाटन भण्डार में सुरक्षित हैं ।
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प्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य वर्धमानगणि ने कुमारविहारप्रशस्तिकाव्य बनाया । उसमें ८७वाँ पद्य ऐसा अद्भुत अनेकार्थी निर्मित किया कि प्रारंभ में उसके उन्होंने ६ अर्थ निकाले पर पीछे उनके शिष्य ने ११६ अर्थ किये। उनमें ३१ कुमारपाल, ४१ हेमचन्द्राचार्य और १०९ अर्थ वाग्भट मंत्री के सम्बन्ध में निकलते हैं । यह पद्य टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है । "
वर्धमानगणि के समकालीन सोमप्रभाचार्य ने शतार्थिक काव्य के रूप में एक पद्य की रचना की और उस पर अपनी टीका लिखी । इससे उन्होंने १०६ अर्थ निकाले हैं जिनमें २४ तीर्थंकर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा चौलुक्य नृप जयसिंह, कुमारपाल, अजयपाल आदि के अर्थ शामिल हैं । यह भी प्रकाश में आ गया है।
9. काव्यमाला, ग्रन्थांक ५७, निर्णयसागर प्रेस, बंबई, १९२६.
२. जिनरत्नकोश, पृ० २२९.
३. वही, पृ० २१६.
४. वही, पृ० २१०.
५.
अनेकार्थ- साहित्य-संग्रह, प्राचीन साहित्योद्वार ग्रन्थावली, पुष्प २,
अहमदाबाद.
६. वही, पृ० १ ६८.
वही, पृ० ६८-१३४.
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