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ललित वाङ्मय
पीछे १५वीं से २०वीं शती तक जैन कवियों ने इस दिशा में प्रचुर रचनाएं लिखीं। उनमें महोपाध्याय समयसुन्दररचित 'अष्टलक्षी' (सं. १६४९) भारतीय काव्य-साहित्य का ही नहीं, विश्व-साहित्य का अद्वितीय रत्न है। कहा जाता है कि एक बार अकबर की सभा में जैनों के 'एगस्स सुत्तस्स भणंतो अस्थो' वाक्य का किसी ने उपहास किया। यह बात उक्त महोपाध्याय को बुरी लगी और उक्त सूत्रवाक्य की सार्थकता बतलाने के लिए 'राजानो ददते सोख्यम्' इस आठ अक्षर वाले वाक्य के दस लाख बाईस हजार चार सौ सात अर्थ किये और विद्वानों के समक्ष अकबर को सुनाये। इससे सब चकित हो गये। पीछे कवि ने उक्त अर्थों में से असम्भव या या जनाविरुद्ध अर्थों को निकाल कर इस ग्रन्थ का 'अष्ट लक्षा" नाम रखा ।
कवि लाभविजय ने 'तमो दुर्वाररागादि वैरिवार निवारणे। अहं ते योगिनाथाय महावीराय तायिने ॥' इस पद्य के पाँच सौ अर्थ किये हैं। इस प्रकार की अन्य रचनाओं में मनोहर और शोभनरचित चतुस्संधानकाव्य का उल्लेख मिलता है । इस प्रसंग में नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य पं० जगन्नाथ (सं० १६९९) की दो रचनाएं 'सप्तसन्धान' और 'चतुर्विंशतिसंधान' भी उल्लेखनीय हैं । पिछले ग्रन्थ में श्लेषमय एक ही पद्य से २४ तीर्थकरों का अर्थबोध होता है । बह पद्य निम्नलिखित है:
श्रेयान् श्रीवासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीद्रुमाङ्कोऽथ धर्मो, हर्यङ्कः पुष्पदन्तो मुनिसुव्रतजिनोऽनन्तवाक् श्रीसुपावः । शान्तिः पद्मप्रभोरो विमलविभुरसौ वर्धमानोऽप्यजाको, मल्लिर्नेमिनमिर्मी सुमतिरवतु सच्छ्रीजगन्नाथधीरम् ।। इस काव्य के संस्कृत टीकाकार स्वयं कवि जगन्नाथ ही हैं। कुछ विद्वान् पण्डितराज जगन्नाथ ( रसगंगाधरकार ) उक्त पद्य के रचयिता को मानते हैं।
१. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, ग्रन्थांक ८१. २. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ८, किरण १. ३. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ५, किरण ४, पृ. २२५.
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