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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
की कृतियों में विनयविजयकृत इन्दुदूत', विजयामृतसूरिकृत मयूरदूत, मेघविजयकृत मेत्रदूत - समस्यालेख' तथा चेतोदूत' हैं ।
कतिपय विज्ञप्तियों का यहाँ संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं :
संस्कृत काव्य के रूप में सबसे प्राचीन विज्ञप्तिपत्र' सं० १४६६ का मिला है जो १०८ हाथ लम्बा था । इसका दूसरा नाम 'त्रिदशतरंगिणी' है । यह मुनिसुन्दरसूरि ने अपने गुरु देवसुन्दरसूरि के लिए लिखा था। इसके एक भाग में तपागच्छ की गुर्वावलि भी थी। इसका वर्णन हम पहले कर आये हैं ।
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'विज्ञप्ति त्रिवेणी" नामक एक विज्ञप्तिपत्र सं० १४८४ में जयसागरगणि ने लिखा । इसमें सिन्धुदेश के मल्लिवाहनपुर से कवि ने अणहिलपुर में रहनेवाले अपने गुरु खरतरगच्छनायक जिनभद्रसूरि के लिए विज्ञप्तिरूप में एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने अपने तीर्थप्रवासादि का वर्णन किया है । यह सुन्दर काव्य है ।
ग्रन्थकर्ता जयसागरगणि पृथ्वीचन्द्रचरित्र ( सं० १५०३ ), पार्श्वजिनालयप्रशस्ति (सं० १४७३), पर्वरत्नावली आदि अनेकों ग्रन्थों के रचयिता हैं । इनके दीक्षागुरु जिनराज, विद्यागुरु जिनवर्धन एवं उपाध्याय जिनभद्रसूरि थे ।
सं० १६६० के लगभग तपा० आनन्दविजय के शिष्य मेरुविजयकृत संस्कृत में एक विज्ञसिपत्री का उल्लेख मिलता है । '
इसके बाद संस्कृत काव्यरूप में विनयविजयकृत तीन विज्ञप्तिपत्र मिलते हैं । " पहला इन्दुदूत है जो कालिदास के मेघदूत की शैली पर लिखा गया है । इसे विनयविजय ने जोधपुर से अपने सूरत नगर में विराजमान गुरु विजयप्रभसूरि के
1.
काव्यमाला, १४, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई.
जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद, सं० २०००.
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२.
३. जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, संख्या २४.
४. वही, संख्या २५.
५. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित विज्ञप्तित्रिवेणी, पृ० ३० आदि.
६. जिनरत्नकोश, पृ०३५५; जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, १९१६.
9. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ४७४-७५.
८. जिनरत्नकोश, पृ० ६५५.
९. काव्यमाला, १४, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई.
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