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ऐतिहासिक साहित्य शती तक पश्चिम भारत के अनेक स्थानों से प्राकृत में मिले हैं जिनमें शत्रुजय से ही ५० के लगभग और शेष आबू, पाटन, सिक्रा और माण्डवी से हैं।
जैन विद्वानों ने ये सभी लेख अपने धर्मानुरागवश ही नहीं लिखे बल्कि इतिहासप्रियता से भी लिखे हैं। उन्होंने इनमें से अनेकों की रचना अपने धर्मस्थानों और सम्प्रदाय के उपयोग के लिए हो नहीं की प्रत्युत अन्य धर्म और सम्प्रदाय के उपयोग के लिए भी की। हमें ऐसे अनेक लेख मिले हैं जिन्हें जैन विद्वानों ने इतर सम्प्रदाय के मन्दिरों या स्थानों के लिए ही बनाया है। उदाहरणस्वरूप दिगम्बर रामकीर्ति ने नित्तौड़गढ़ प्रशस्ति (११५० ई०) वहाँ के मोकलजी मन्दिर के लिए, बृहद्गच्छ के जयमंगलसूरिकृत सुन्धाद्रि लेख' चामुण्डादेवी के मन्दिर के लिए, यशोदेव दिगम्बर ने ग्वालियर के सासबहू' मन्दिर के लिए तथा रत्नप्रभसूरि ने गुहलोतों के घाघसा और चिर्वा के "विष्णु मन्दिर के लिए लेख लिखे थे । यहाँ यह न समझना चाहिए कि वे लेख उन स्थानों में जैनों से छीन. कर ले जाये गये हैं, प्रत्युत इसके विपरीत वे लेख विशेषतः उन स्थानों के लिए ही जैनाचार्यों ने लिखे थे क्योंकि उन लेखों के अन्त में जैनाचार्यों के नाम, गुरुपरम्परा, गण, गच्छ के सिवाय हमें ऐसा कुछ नहीं मिलता जो जैनों से सम्बन्धित हो । यहाँ तक कि मंगलाचरण के पद्य भी अजैन देवी-देवताओं के मंगलाचरण से प्रारम्भ होते हैं। हाँ,कुछेक में ॐसर्वज्ञाय नमः, पद्मनाथाय नमः आदि से उनका प्रारम्भ होता है । ये लेख निश्चित रूप से जैनाचार्यों की उदारता और विशाल हृदयता को सूचित करते हैं। ___ सबसे अधिक जैन शिलालेख दक्षिण भारत में सुरक्षित मिले हैं। पाश्चात्य विद्वानों-ई० हुल्श, जे. एफ० फ्लीट, लुइस राइस आदि ने साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्शन्स, इण्डियन एण्टीक्वेरी, एपिग्राफिया कर्णाटिका आदि ग्रन्थों में वहाँ के हजारों लेखों का संग्रह किया है। ये लेख पाषाणपट्टों एवं ताम्रपत्रों पर संस्कृत
१. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग २, पृ० ४२१; हिस्टोरिकल इन्स्क्रिप्शन्स ऑफ
गुजरात, भाग २, संख्या १४६. २. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग ९, पृ. ७०-७७; जैन लेखसंग्रह (नाहर),
भाग १, संख्या ९०३. ३. इण्डियन एण्टीक्वेरी, भाग १५, पृ० ३३-४६. ४. राजपूताना म्यूजियम रिपोर्ट, १९२७, पृ० ३. ५. वियना ओरियण्टल जर्नल, भाग २१, पृ० १४२.
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