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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास __ इस काव्य को भाषा व्याकरण के प्रयोगों से बोझिल होने से भिन्न प्रकार की है। इसमें भाषा की स्वाभाविकता सुरक्षित नहीं रह सकी है। अनेक स्थलों पर अप्रचलित अथवा अल्पप्रचलित शब्दों का प्रयोग किया गया है। फिर भी इसमें स्थान-स्थान पर भाषासौष्ठव, लालित्य और मनोहर पदविन्यास के दर्शन होते है। इस तरह इस काव्य में सरल और कठिन दोनों प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया है । कहीं-कहीं भाषा में मुहावरों का भी प्रयोग हुआ है।
_ विविध अलंकारों की योजना भी इस काव्य में की गई है। शब्दालंकारों में अनुप्रास का प्रयोग अधिक हुआ है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा के अधिक दर्शन होते हैं ।
पाँचवें सर्ग को छोड़कर कवि ने प्रत्येक सर्ग की रचना अनुष्टुभ् छन्द में की है परन्तु सर्ग के अन्त में विविध छन्दों का प्रयोग किया है। पाँचवे सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग दर्शनीय है। कुछ अप्रचलित छन्द जैसे-वैश्वदेवी, निवास, वेगवती आदि का प्रयोग भो कवि ने किया है।
श्रेणिकचरित की कुल श्लोकसंख्या २२६७ है।
कविपरिचय और रचनाकाल-इस काव्य के रचयिता जिनप्रभसूरि हैं जो लघुखरतरगच्छ के स्थापक तथा चन्द्रगच्छीय जिनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और जिनसिंहसूरि के शिष्य थे। ये मुस्लिम शासक मुहम्मद तुगलक के समकालीन थे तथा उसके द्वारा बहुत सम्मानित हुए थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी थी तथा अनेक स्तोत्रों की रचना की थी। ये प्रसिद्ध ग्रन्थ 'विविधतीर्थकल्प' के रचयिता हैं। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उन्होंने इस अन्य की रचना दयाकरमुनि की प्रार्थना पर वि० सं० १३५६ में की थी। शान्तिनाथचरित:
इस महाकाव्य' की कथावस्तु का आधार मुनिदेवसरिकृत 'शान्तिनाथचरित' है। कवि ने अपने काव्य में मुनिदेवसूरि का अनुकरण किया है, फलस्वरूप कथानक में कवि की मौलिक देन कुछ भी नहीं है । मूलकथा के साथ इसमें अवान्तर कथाओं की भरमार है यथा मंगलकुंभकथानक, धनदपुत्रकथा,
१. प्रशस्तिपथ २. २. यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, वीर सं० २४३७.
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