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ललित वाकाय कथानक में इसका अच्छा प्रभाव दिखायी पड़ता है। यहाँ विविध घटनाओं में सामं. जस्य स्थापित करके सुसंगठित कथानक बनाने में कवि अच्छा सफल हुआ है। कवि ने मूल महाभारत के कथानक में कोई परिवर्तन नहीं किया है। इस काव्य में यत्र-तत्र पात्रों के कथोपकथन में नाटकीय सजीवता विद्यमान है।
बालभारत में महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों का निर्वाह करने के लिए आदिपर्व के ७वे सर्ग में वसन्त-वर्णन और आठवें से ग्यारहवे तक पुष्पचयन, जलक्रीडा, चन्द्रोदय, मद्यपान और कामकेलियों आदि का वर्णन दिया गया है। बारहवे में खाण्डव वन का वर्णन तथा सभापर्व के चौथे सर्ग में ऋतुवर्णन और द्रोण तथा भीष्मपर्वो में युद्धवर्णन और स्त्रीपर्व में स्त्रियों के विलाप द्वारा करुण भावों का प्रदर्शन किया गया है। इस तरह विशालकाय महाभारत का संक्षिप्त रूप देने का प्रयास किया गया है ।
चरित्रचित्रण में पाण्डवों का चरित्र 'बालभारत' में सबसे अधिक व्यापक है । वे ही प्रधान पात्रों के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। इनके साथ भीष्म, कर्ण, दुर्योधन, द्रोण आदि पात्र भी अपनी परम्परागत विशेषताएं लिये हुए हैं । स्त्रीपात्रों में कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि का चरित्रांकन भी सुन्दरता से हुआ है । प्रकृति-चित्रण भी प्रायः प्रत्येक पर्व में हुआ है। अपने युग के बीच फैले हुए नाना प्रकार के अंधविश्वासों, शकुन-अपशकुनों, शुभ अशुभ स्वप्नों के वर्णनों द्वारा तत्कालीन समाज की स्थिति के एक अंश का चित्रण भी इस काव्य में हुआ है। __ इस काव्य में जैनधर्म के तत्वों के प्रतिपादन का प्रयत्न कहीं भी नहीं किया गया है क्योंकि इसकी रचना ब्राह्मणों की प्रार्थना पर की गई है। इसमें भीष्म द्वारा राजधर्म, आपद्धर्म और मोक्षधर्म का उपदेश महाभारत के अनुसार ही दिलाया गया है । इसमें कवि मौलिक नहीं है।
इस काव्य की भाषा वैविध्यपूर्ण, परिमार्जित, प्रांजल और प्रवाहयुक्त है। माधुर्यगुण अनेक स्थलों पर दृष्टिगत होता है । इसमें कर्णकटु शब्दों का नितान्त अभाव है। इसकी भाषाशैली में गरिमा, भव्यता और उदात्तता विद्यमान है जो अन्य काव्यों में बहुत कम प्राप्त है । स्वयं कवि ने बालभारत को 'वाणीवेश्म' तथा 'भाषारूपी पृथ्वी पर खड़ा किया गया श्रेय और शोभा का भवन' कहा है ।
कवि ने इस काव्य की भाव और भाषा को अलंकारों से उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न किया है । शब्दालंकारों में अनुप्रास का अधिक प्रयोग एवं
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