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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अर्थालंकारों में उत्प्रेश्चा, विरोधाभास, अपह्नुति, दीपक आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है । 'बालभारत' में अधिकांश सर्गों में एक छन्द का ही प्रयोग हुआ है और सर्गान्त में छन्दपरिवर्तन किया गया है । सर्ग १९, ३३, ३४, ४३ और ४४ में अनेक छन्दों का प्रयोग हुआ है । इसमें कुल मिलाकर २७ छन्दों का प्रयोग हुआ है । इनमें अनुष्टुभ् का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है ।
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अन्तिम सर्ग को छोड़ सभी सर्गों के प्रारम्भ में लेखक ने एक-एक पद्य द्वारा व्यासदेव की प्रार्थना की है । प्रत्येक सर्ग के अन्त में वीर शब्द का प्रयोग कर इसे वीराङ्क काव्य कहा है । इसमें कुल मिलाकर ५४८२ पद्य हैं जिनका ग्रन्था अनुष्टुभ् प्रमाण से ६९५० है ।
कविपरिचय एवं रचनाकाल - काव्य के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इस काव्य के रचयिता प्रसिद्ध कवि अमरचन्द्रसूरि थे जो कि वायटगच्छीय थे । उनसे पूर्व वायटगच्छ में परकायाप्रवेश विद्या में निपुण जीवदेवसूरि हुए थे । उनकी शिष्य परम्परा में 'विवेकविलास' के रचयिता श्री जिनदत्तसूरि हुए । इन्हीं जिनदत्तसूरि के शिष्य अमरचन्द्रसूरि हुए। ये अपने समय के मूर्धन्य विद्वान् थे । गुर्जरनरेश वोसलदेव ने इन्हें कवितार्वभौम की उपाधि दी थी । इनके जीवन का परिचय इनकी अन्य कृति 'पद्मानन्दमहाकाव्य' से तथा रत्नशेखरसूरिकृत 'चतुर्विंशतिप्रबंध' एवं रत्नमन्दिर गणिकृत 'उपदेशतरंगिणी' से भी मिलता है । इनके कलागुरु अरिसिंह ठक्कुर थे । afar आशुकवि थे और वायटनिवासी ब्राह्मणों के अनुरोध पर उन्होंने समस्त महाभारत का संक्षेप 'बालभारत' शीघ्र रच दिया। कालान्तर में कोष्ठागारिक पद्ममन्त्री की प्रार्थना पर कवि ने 'पद्मानन्द महाकाव्य' की रचना की ।
कवि की अन्य कृतियों में ( १ ) काव्यकल्पलता या कविशिक्षा, ( २ ) काव्यकल्पलतावृत्ति, (३) चतुर्विंशतिजिनेन्द्र संक्षिप्त चरितानि, (४) सुकृतसंकीर्तन के प्रत्येक सर्ग के अन्तिम चार पद्य, (५) स्यादिशब्दसमुच्चय, (६) काव्य कल्पलता परिमल, (७) काव्य कल्पलतामंजरी, (८) काव्यकलाप, ( ९ ) छन्दोरत्नावली, (१०) अलंकारप्रबोध और ( ११ ) सूकावली है ।
१. इन छन्दों के अध्ययन के लिए देखें - हरि दामोदर वेलंकर का लेख : प्रोसोडियल प्रेक्टिस ऑफ संस्कृत पोइट्स, जर्नल ऑफ दी बॉम्बे ब्रांच ऑफ दी रॉयल एशियाटिक सोसायटी, भाग २४-१५, पृ० ५१.
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