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ललित वाङ्मय
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सम्भव, किरातार्जुनीय, शिशुपालवध तथा नैषधचरित - के समकक्ष जैन संस्कृत साहित्य में काव्य के अभाव की पूर्ति के लिए उक्त काव्य की रचना की है। इस काव्य का संशोधन राजशेखरसूरि ने किया था । कवि ने इस काव्य की रचना का समय भी उक्त प्रशस्ति में सं० १४१० दिया है । ३
जयोदय- महाकाव्य :
इस काव्य में २८ सर्ग हैं जिनमें जिनसेन प्रथम द्वारा महापुराण में वर्णित ऋषभदेव भरतकालीन जयकुमार - सुलोचना के पौराणिक कथानक को महाकाव्य का रूप दिया गया है । इसके ३-५ सर्गों में स्वयंवर का वर्णन, ६-८ में युद्धवर्णन, ९ वें में जयकुमार के विवाह का विस्तृत वर्णन आदि, १४वें सर्ग में वन-क्रीडावर्णन, १५ वें में संध्या - वर्णन, १६ वें में पानगोष्ठी, १७ वें में रात्रि एवं संभोगवर्णन, १८वें में प्रभात - वर्णन महाकाव्य के अनुरूप वर्णित हैं ।
इस काव्य में कवि ने विविध छन्दों, शब्द और अर्थ अलंकारों तथा विविध रसों के सन्निवेश के साथ कथानक को बड़े रोचक ढंग से दिया है। अनुप्रास का जगह-जगह अधिक मात्रा में प्रयोग होने से कहीं-कहीं अर्थ की स्पष्टता में बाधा आती है । प्रस्तुत काव्य में कविपरम्परा के नियमों के निर्वाह के साथ आधुनिकता का पुट विशेष दिखाई देता है । नये परिवेश में पुराने छन्दों का प्रयोग देखने लायक है। सामान्यतः प्रत्येक सर्ग के उपान्त्य पद्य में प्रायः एक-नएक चक्रबन्ध का प्रयोग किया गया है जो शब्दालंकार की प्रियता को सूचित करता है ।
इस काव्य के उक्तिवैचित्र्य के कुछ नमूने इस प्रकार हैं :
8.
कवितायाः कविः कर्ता रसिक: कोविदः पुनः । रमणी रमणीयत्वं पतिर्जानाति नो पिता ॥
९. वही, पद्य १३-१४.
२. वही, पद्य ११.
३. वही, पद्य १२.
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प्रका० ब्रह्म० सूरजमल, वी० सं० २४७६.
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