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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कार्यों के विस्तृत विवरण देकर कवि ने सामाजिक रीति-रिवाजों पर अच्छा प्रकाश डाला है ।'
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काव्यकला के अन्तरंग पक्ष को कवि ने विविध रसों की योजना द्वारा पुष्ट किया है। इसमें प्रधान रस शान्तरस है पर शृंगार, वीर, रौद्र, भयानक एवं वात्सल्यरस की छटा भी यत्र-तत्र दिखाई पड़ती है ।
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इस काव्य की भाषा में प्रौढ़ता, लालित्य और अनेकरूपता के दर्शन होते हैं । कवि ने इसे अलंकारों से सजाने की चेष्टा की है । शब्दालंकारों में यमक का प्रयोग तो स्थल स्थल पर किया गया है पर भाषा की सरलता अक्षत है इसी तरह अनुप्रास और विशेषकर अन्त्यानुप्रासों की योजना की गई है। अर्थालंकारों में सादृश्यमूलक अलंकारों का अर्थात् उपमा, उत्प्रेक्षा और अर्थान्तरन्यास का प्रयोग बहुत हुआ है । इस काव्य में अधिकतर अलंकार यत्नसाध्य हैं फिर भी यत्र-तत्र स्वाभाविक योजना भी दिखाई पड़ती है ।
इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में एक छन्द का प्रयोग हुआ है और सर्ग के अन्त में छन्दपरिवर्तन किया गया है। चौदहवें सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है। कुल मिलाकर १९ छन्दों का प्रयोग इस काव्य में हुआ है । इनमें उपजाति का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है ।
कविपरिचय और रचनाकाल — काव्य के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इस काव्य के रचयिता मुनिभद्रसूरि थे जो बृहद्गच्छ के थे । उक्त गच्छ में मुनिचन्द्रसूरि नामक गच्छपति हुए थे जिनके पट्ट पर कालक्रम से देवसूरि, भद्रेश्वरसूरि विजयेन्दुसूरि, मानभद्रसूरि तथा गुणभद्रसूरि हुए । गुणभद्रसूरि दिल्ली के बादशाह मुहम्मद तुगलक के समकालीन थे और उससे सम्मानित थे। इन्हीं गुणभद्र के शिष्य इस काव्य के रचयिता मुनिभद्रसूरि थे । तत्कालीन - मुस्लिम नरेश फीरोजशाह तुगलक इनकी बड़ी इज्जत करता था । इसका उल्लेख कवि ने स्वयं किया है ।
इस काव्य की रचना मुनिभद्रसूरि ने भक्तिभावना और विशेषकर पाण्डित्यप्रदर्शन की भावना से प्रेरित होकर की है । कवि ने काव्यपंचक - रघुवंश, कुमार
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१. सर्ग १ ५४; ३. ११३, ११९, १२०-१२८, ४. २६, ५९-६०, १०८-११०, १५-११ आदि.
२ प्रशस्तिपद्य ९.
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